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________________ ४६८ ज्ञानसार अनुबन्धसहित जिन-आज्ञा प्रवर्तित हो, ऐसा तप शुद्ध माना जाता है ! विवेचन : बिना सोचे-समझे तप करने से नहीं चलता, ना ही कोई लाभ होता है । यानी उसके परिणाम को जानना चाहिये ! यह परिणाम इसी जीवन में आना चाहिए । सिर्फ परलोक के रमणीय सुखों को कल्पनालोक में गूंथकर तप करने से कोई लाभ नहीं ! तनिक ध्यान से सोचो । जैसे-जैसे तुम तपश्चर्या करते जाओ, वैसे-वैसे उसके निम्नांकित चार परिणाम आने चाहिये : (१) ब्रह्मचर्य में वृद्धि होती है ? (२) जिन-पूजा में प्रगति होती है ? (३) कषायों में कटौती होती है ? (४) सानुबन्ध जिनाज्ञा का पालन होता है ? तपश्चर्या का आरम्भ करते समय इन चार आदर्शों को दृष्टि के समक्ष रखना परमावश्यक है। जिस तरह तपश्चर्या करते चलें उसी तरह इन चार बातों में प्रगति हो रही है या नहीं-इसका निरीक्षण करते रहें । इसी जीवन में इन चारों ही बातों में हमारी विशिष्ट प्रगति होनी चाहिए । यही तो तपश्चर्या का तेज है और अद्भुत प्रभाव ! ज्ञानमूलक तपश्चर्या ब्रह्मचर्य में दृढता प्रदान करती है ! उससे अब्रह्म... मैथुन की वासनाएँ मंद हो जाती हैं और दिमाग में भूलकर भी कामभोग के विचार नहीं आते । मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन होता है ! तपस्वी के लिए ब्रह्मचर्य-महाव्रत के पालन में सुगमता आ जाती है। मैथुन-त्याग तपस्वी के लिए आसान हो जाता है ! तपस्वी का एक ही लक्ष्य होता है : "मुझे ब्रह्मचर्य-पालन में निर्मलता, विमलता, पवित्रता और दृढता लाना है ।" । जिन-पूजा में निरन्तर प्रगति होती जाती है। जिनेश्वरदेव के प्रति उसके हृदय में श्रद्धाभाव और भक्ति की अनूठी वृद्धि होती रहती है ! शरणागति का भाव दृढतर होता रहता है। समर्पण-भाव में उत्कटता का आविर्भाव होता है। जिनेश्वरदेव की द्रव्य-पूजा और भाव-पूजा में उत्साह की तरंगे छलकती रहती
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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