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तप
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पूज्य उपाध्यायजी महाराज का कथन है कि तपश्चर्या में अन्तरंग आनन्द की धारा अखंडित रहती है, उसका नाश नहीं होता । अतः तपश्चर्या मात्र कष्टप्रद नहीं है । पशुपीडा के साथ मानव के तप की तुलना करना कहाँ तक उचित है ? पशु के हृदय में क्या कभी अन्तरंग आनन्द की धारा प्रवाहित होती है ? पशु क्या स्वेच्छया कष्ट सहन करता है ?
क्योंकि तपश्चर्या की आराधना में प्रायः स्वेच्छया कष्ट सहने का विधान है ! किसी के बन्धन, भय अथवा पराधीनावस्था के कारण नहीं ! स्वेच्छया कष्ट सहन करने में अन्तरंग आनन्द छलकता है, उफनता है ! इस आनन्द के प्रवाह को दृष्टिगोचर नहीं करनेवाले मात्र बौद्ध ही तप को दुःखरुप मानते हैं ! उन्होंने केवल तपस्वी का बाह्य स्वरुप देखने का प्रयत्न किया है । उसके कृश देह को निहार, सोचा कि 'बेचारा कितना दुःखी है ? ना खाना, ना पीना,... सचमुच शरीर कैसा सुखकर काँटा हो गया हैं !' इस तरह तपश्चर्या के कारण शरीर पर होनेवाले प्रभाव को देखकर उसके प्रति घृणा - भाव पैदा करना आत्मवादी के लिए कहाँ तक उचित हैं ? योग्य हैं ?
घोर तपश्चर्या की, अनन्य एवं अद्भुत आत्म-बल से आराधना करनेवाले महापुरुष के... आंतरिक आनन्द का यथोचित मूल्यांकन करने के लिए, उनका घनिष्ट परिचय होना अत्यावश्यक है । अरे, चंपा सदृश सुश्राविका के छह मास के उपवास के बदौलत परधर्मी और हिंसक बादशाह अकबर को आनन-फानन में अहिंसक बना दिया था ! लेकिन कब ? जब अकबर ने खुस होकर चंपा श्राविका का परिचय प्राप्त किया था । तपस्विनी चंपा के आंतरिक आनन्द को नजदीक से देखा और समझा ! तपश्चर्या को कष्टप्रद नहीं बल्कि सुखप्रद मानने की चंपा श्राविका की महानता को परखा ! फलतः अकबर जैसा बादशाह तपश्चर्या की खिदमत में झुक पडा !
यत्र ब्रह्म जिनाच च कषायाणां तथा हतिः । सानुबन्धा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥३१॥६॥
अर्थ : जहाँ ब्रह्मचर्य हो, जिनपूजा हो, कषायों का क्षय होता हो और