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ज्ञानसार
निष्फल है,' ऐसा कहनेवाले बौद्धों की बुद्धि कुन्ठित हो गई है। क्योंकि बुद्धिजनित अन्तरंग आनन्द-धारा कभी खंडित नहीं होती ! तात्पर्य यह कि तपश्चर्या में भी आत्मिक आनन्द की धारा सदैव अखंड रहती है ।
विवेचन : 'कर्म-क्षय हेतु, दुष्ट वासनाओं के निरोधार्थ तपश्चर्या एक आवश्यक क्रिया है । जो करनी ही चाहिए।' इस शाश्वत्, सनातन सिद्धान्त पर भारतीय धर्मों में से केवल बौद्ध धर्म ने आक्रमण किया है ! अलबत्त, चार्वाकदर्शन भी इसी पथ का पथिक है ! परन्तु वह आत्मा और परमात्मा के सिद्धान्त में ही विश्वास नहीं करता । अतः वह तपश्चर्या के सिद्धान्त को स्वीकार न करेयह समझ में आने जैसी बात है। परन्तु आत्मा एवं निर्वाण को मान्यता प्रदान करनेवाला बौद्ध दर्शन भी तपश्चर्या की अवहेलना करे, अमान्य करे, तब सामान्य जनता में संदेह उत्पन्न होता है और तपश्चर्या के प्रति अश्रद्धा का प्रादुर्भाव होता
फलतः सामान्य जनता के हितचिंतक और मार्गदर्शक महात्माओं को दुःख होना स्वाभाविक है ! तपश्चर्या को लेकर बौद्ध-दर्शन का अपलाप कैसा है, यह जानने जैसी बात है ! वह कहता है :
'दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यते तन्न युक्तिमत् ।
कर्मोदयस्वरुपत्वात् बलिवर्दादि-दुःखवत् ॥ "कित्येक (जैनादि) बैल आदि पशु के दुःख की तरह अशाता वेदनीय के उदय-स्वरूप होने से तपश्चर्या को दुःखप्रद मानते हैं, जो युक्तियुक्त नहीं है! बौद्ध कहते हैं : "तप क्यों करना चाहिए ? पशुओं की तरह दुःख सहने से भला क्या लाभ ? वह तो अशाता वेदनीय कर्म के उदय-स्वरुप जो है ! हरिभद्रसूरीजी ने कहा है कि :
विशिष्टज्ञान-संवेगशमसारमतस्तपः ।।
क्षयोपशमिकं ज्ञेयमव्याबाधसुखात्मकम् ॥ "विशिष्टज्ञान-संवेग-उपशमगर्भित तप क्षायोपशमिक और अव्याबाध सुखरूप है !' अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्पन्न परिणति-स्वरुप है, ना कि अशातावेदनीय के उदय-स्वरुप है ।