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तप
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निकटता खोज निकालते हैं । जैसे जैसे साध्य सन्निकट होगा, माधुर्य में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है और वे अपूर्व आनन्द का अनुभव करते हैं । क्रमशः वह आनन्द बढ़ता ही जाता है।
"वैराग्यरति" ग्रन्थ में कहा गया है : रतेः समाधावरतिः क्रियासु नात्यन्ततीव्रास्वपि योगिनां स्यात् । अनाकुला वह्निकणाशनेऽपि न किं सुधापानगुणाच्चकोराः ॥"
"योगीजनों को समाधि में रति-प्रीति होने से अत्यन्त तीव्र क्रिया में भी अरति-अप्रीति कभी नहीं होती ! चकोर पक्षी सुधारसपान करने का चाहक होने से अग्नि-कण भक्षण करते हुए भी क्या व्याकुलता-विरहित नहीं होता ?"
मधुरता के बिना आनन्द नहीं और बिना आनन्द के कठोर धर्मक्रिया दीर्घावधि तक टिकती नहीं ! वैसे मधुरता और आनन्द, कठोर धर्माराधना में भी जीव को गतिशील बनाता है : प्रगति कराता है । . यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि तपस्वी को ज्ञानी होना नितान्त आवश्यक है ! यदि तपस्वी अज्ञानी और गँवार होगा तो उसे कठोर धर्म-क्रिया के प्रति अप्रीति होगी, अरति होगी। भले ही वह धर्म-क्रिया करता होगा, लेकिन वह मधुरता का अनुभव नहीं करेगा । ज्ञान उसे साध्य-मोक्ष के सुख की कल्पना देता है और वह कल्पना उसे मधुरता प्रदान करती है। उससे वह आनन्द भरपूर बन जाता है ! यही आनन्द उसकी कठोर तपश्चर्या को जीवन देता है । ज्ञानयुक्त तपस्वी की जीवनदशा का यहाँ कैसा अपूर्व दर्शन कराया है। हम ऐसे तपस्वी बनने का आदर्श रखें । उसके लिए साध्य की कल्पना स्पष्ट करें । वह इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि जिसमें से माधुर्य का स्फुरण होता रहे ! इसके लिये तपश्चर्या के एकमेव उपाय का अवलम्बन करें ! बस, निरन्तर आनन्द-वृद्धि होती रहेगी और उस आनन्द में नित्यप्रति क्रिडा करते रहेंगे।
इत्थं च दुःखरूपत्वात् तपोव्यर्थ मितीच्छताम् । बौद्धानां निहता बुद्धिबौद्धानन्दापरिक्षयात् ॥३१॥५॥ अर्थ : इस मंतव्य के साथ कि 'इस तरह दुःखरुप होने के कारण तप