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________________ ४६४ ज्ञानसार की प्राप्ति के लिए तपश्चर्या करें ! परिणाम यह होगा कि एकाध - दो उपवास क्या, महिने - दो महिने के उपवास भी उसे सरल लगेंगे! घंटों तक ध्यानस्थ रहना उसके लिए कष्टप्रद नहीं होगा । जिस तरह इस विश्व में सब से प्रिय वस्तु पैसा है, उसी तरह विवेकशील मुमुक्षु के लिए अत्यधिक प्रिय वस्तु परम तत्त्व ही है । उसे पाने के लिए जो कोई कष्ट सहे, एक तरह से वह तप ही है । ऐसा तप उसे सरल, सुगम और उपादेय प्रतीत होता है और वह अदम्य उत्साह के साथ उसकी आराधना करता है ! सदुपायप्रवृत्तानानुपेयमधुरत्वतः । ज्ञानिनां नित्यमानन्दवृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥३१॥४ अर्थ : अच्छे उपाय में प्रवृत्त ज्ञानी ऐसे तपस्वियों को मोक्ष रुपी साध्य की स्वादुता से उसके आनन्द में सदैव अभिवृद्धि होती है । विवेचन : जहाँ मीठापन वहाँ आनन्द ! जहाँ मिष्टान्न का भोजन वहाँ आनन्द ! जहाँ मीठे शब्दों की खैरात वहाँ आनन्द ! जहाँ मधुर-मिलन वहाँ आनन्द ! अरे, मीठेपन में ही आनन्द का अनुभव होता है । लेकिन ज्ञानियों को मिष्टान्न आनन्द नहीं देता ! मृदु शब्दों के श्रवण में उन्हें रस नहीं और ना ही मधुर मिलन की उन्हें उत्कण्ठा होती है । तब भला, उनका जीवन कैसा नीरस, आनन्द विहीन उल्लासहीन होगा ? 1 नहीं, नहीं ! उनका जीवन आनन्द से भरपूर होत है ! रसभीना होता है ! उल्लास से परिपूर्ण होता है । जानते हो वे यह आनन्द कहाँ से प्राप्त करते हैं ? साध्य की मधुरता में से और उनका एकमेव साध्य है मोक्ष ! मोक्ष प्राप्ति ! शिवरमणी के मधुर मिलन की कल्पना मात्र से माधुर्य बरसता है ! यह माधुर्य तपस्वीगण को आनन्द से भर देता है ! शिवरमणी से मिलने का तपस्वीजनों ने एक अच्छा उपाय पकड लिया है तपश्चर्या का, देह-दमन का और वृत्तियों के शमन का । तपस्वीजनों के पास ज्ञानदृष्टि जो होती है, वे इस उपाय से साध्य की
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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