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तप
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आराम का नाम निशान नहीं ? धन-संपदा के पीछे दीवाना बन, घूमनेवाले को कष्ट कष्टरूप नहीं लगता, ना ही दुःख दुःखरूप लगता है ! तब भला, जिसे परम तत्त्व के बिना सब कुछ तुच्छ प्रतीत हो गया, ऐसे भवविरक्त परमत्यागी महात्मा को शीत-तापादि कष्टरूप लगेंगे क्या? पादविहार और केशलुंचन आदि कष्टदायी प्रतीत होंगे क्या ?
___ अरे, परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु भवसुखों से विरक्त वन राजगृह की पहाड़ियों में प्रस्थान कर... उत्तप्त चट्टान पर नंगे बदन सोनेवाले धन्नाजी और शालिभद्र को वे कष्ट कष्टरूप नहीं लगे थे ! उनके मन में वह सब स्वाभाविक
था!
जो मनुष्य भव से विरक्त नहीं, सांसारिक-सुखों से विरक्त नहीं, ना ही परमतत्त्व-आत्मस्वरुप प्राप्त करने को हृदय में भावना जाग्रत हुई, ऐसे मनुष्य के गले यह बात नहीं उतरेगी । जिसे भव-संसार के सुखों में ही दिन-रात खोये रहना है, भौतिक सुखों का परित्याग नहीं करना है और परम तत्त्व की अनोखी बातें सुन, उसे प्राप्त करने की चाह रखता है, वैसा मनुष्य प्रायः ऐसा मार्ग खोजता है कि कष्ट सहे बिना ही आसानी से परम तत्त्व की प्राप्ति हो जाय ।
भव-विरक्ति के बिना परम तत्त्व की प्राप्ति असम्भव ही है। ठीक वैसे ही भव-विरक्ति और परम तत्त्व की प्राप्ति की तीव्र लालसा के बिना उपसर्ग
और परिसह सहना भी असम्भव है ! इतिहास साक्षी है कि जिन महापुरुषों ने उपसर्ग और परिसह सहन किये थे, वे सब भव विरक्त थे, एवं परम तत्त्व की प्राप्ति के चाहक थे !
गजसुकुमाल मुनि, खंधक मुनि आदि मुनिश्रेष्ठ एवं चन्द्रावतंसक जैसे राजा-महाराजाओं को याद करो... ! परिसह और उपसर्ग उनको उपद्रव रुप नहीं लगे थे।
हाँ, सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ध्येय का निर्णय हो जाना चाहिये ! धन संपदा की भाँति ही तुम्हारे मन में परम तत्त्व की प्राप्ति की भावना उजागर हो जानी चाहिये । जिस तरह धन के बिना धनार्थी को कोई प्रिय नहीं, ठीक उसी तरह मुमुक्षु को बिना परमतत्त्व के कोई प्रिय नहीं, यह सोचकर वह परमतत्त्व