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________________ ४६२ ज्ञानसार अधीन बन अगर तप की ही उपेक्षा करते हो तो यह तुम्हारी सुखशीलता को आभारी है और तुम अज्ञानी हो । अन्तरंग तप सुदृढ़ बनने के लिए बाह्यतप नितान्त जरूरी है। अतः टीका में ग्रन्थकार ने तद्भवमोक्षगामी तीर्थंकरों का उदाहरण देकर कहा है कि, 'वे स्वयं बाह्य तप का आचरण करते हैं।' तब हम भला, यह भी नहीं जानते हैं कि 'किस भव में हमारी मुक्ति है। हम मोक्षपद के अधिकारी बननेवाले हैं या नहीं, तो तप क्यों न करें ? करो, जितना भी सम्भव है, अवश्य बाह्य तप करो... ! शरीर का मोह त्याग कर तपश्चर्या करो । घोर, वीर और उग्र तपश्चर्या कर अपनी अनन्य आत्मशक्ति का इस संसार को परिचय कराओ । लोकप्रवाह के विपरीत प्रवाह में तैर कर अपनी धीरता और वीरता का प्रदर्शन कर, आगे बढते रहो । कर्मक्षय का आदर्श अपने सामने रख, तप करते ही रहो। . धनार्थिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्सहम् । तथा भवविरक्तानां तत्त्वज्ञानार्थिनामपि ॥३१॥३॥ अर्थ : जिस तरह धनार्थी को सर्दी-गरमी आदि कष्ट दुस्सह नहीं है, ठीक उसी तरह संसार से विरक्त तत्त्वज्ञान के चाहक को भी शीतातपादि कष्ट सहन करने रुपी तप दुस्सह नहीं हैं । विवेचन : धन-सम्पत्ति के लालची मनुष्य को, दांत किटकिटनेवाली तीव्र सर्दी और आग बरसानेवाली गरमी की भरी दोपहरी में भटकते देखा होगा? उससे तनिक प्रश्न करना : "अरे भई, इतनी तीव्र सर्दी में भला तुम क्यों भटक रहे हो ? तन-बदन को ठिठुरन से भर दे ऐसी कडाके की सर्दी क्यों सहन कर लेते हो ? आग-उगलती तीव्र गर्मी के थपेड़े क्यों सहते हो ?" प्रत्युत्तर में वह कहेगा : "कष्ट झेले बिना, तकलीफ और यातनाओं को सहे बिना धन-सम्पत्ति नहीं मिलती ! जब ढेर सारा धन मिल जाता है तब सारे कष्ट भूल जाते हैं ।" ना खाने का ठिकाना, ना पीने का ! कपड़ों का ठाठ-बाठ नहीं ! एशो
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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