SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६० ज्ञानसार स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है । यह श्रेष्ठता कर्मक्षय की अपेक्षा से है। स्वाध्याय से विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है जो अन्य तपों से नहीं होता। 'तब क्या बाह्य तप महत्त्वपूर्ण नहीं है ?' है, आभ्यन्तर-तप की प्रगति में सहायक हो-ऐसे बाह्य-तप की नितान्त आवश्यकता है। उपवास करने से यदि स्वाध्याय में प्रगति होती हो तो उपवास करना ही चाहिए । कम खाने से यदि स्वाध्यायादि क्रियाओं में स्फूर्ति का संचार होता हो तो अवश्य कम खाना चाहिए । भोजन में कम व्यंजनो-वस्तुओं के उपयोग से, स्वाद का त्याग करने से, काया को कष्ट देने से और एक स्थान पर स्थिर बैठने से यदि आभ्यन्तर तप में वेग आता हो और सहायता मिलती हो तो निःसंदेह ऐसा बाह्य-तप जरूर करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि बाह्यतप, आभ्यन्तर तप का पूरक बनना चाहिये। हे मानव, केवल तुम ही आभ्यन्तर तप की आराधना कर कर्मक्षय करने में सर्वदृष्टि समर्थ हो । अतः कर्मक्षय कर आत्मा का स्वरूप प्रगट करने हेतु तप करने तत्पर बन जाओ । जब तक कर्मक्षय कर आत्म-स्वरुप प्रगट नहीं करोगे, तब तक तुम्हारे दुःखों का अन्त नहीं आयेगा । आनुश्रोतसिकी वृतिर्बालानां सुखशीलता ! प्रातिश्रोतसिकी वृतिर्जानिनां परमं तपः ॥३१॥२॥ अर्थ : लोकप्रवाह का अनुसरण करने की अज्ञानी की वृत्ति, उसकी सुखशीलता है। जबकि ज्ञानी पुरुषों की, विरुद्ध प्रवाह में चलने रुप वृत्ति उत्कृष्ट तप है। विवेचन : संसार के तीव्र गतिवाले महाप्रवाह ! महाप्रवाह की प्रचंड बाढ में जो बह गये, उनका इतिहास निहायत रोंगटे खडा कर देनेवाला है । अरे, राव-रंक तो क्या, अपनी हुँकार से धरती को एक छोर से दूसरे छोर तक कंपानेवाले, भयभीत करनेवाले रथी-महारथी, चक्रवर्ती, वासुदेव और प्रतिवासुदेव, राजा-महाराज इस महाकाल की बाढ में बह गये... | इसके बावजूद भी प्रलयकारी महा प्रवाह थमा कहाँ है ? आज भी पूर्ववत् बह
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy