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________________ तप ४५९ करता है वह भी इससे भलीभाँति परिचित है ! वेसे आम तौर पर समाज में 'तप' शब्द अमुक प्रकार के बाह्य तप के रूप में ही प्रसिद्ध है । तपश्चर्या क्यों की जाए ? तप कैसा किया जाय ? तपश्चर्या कब की जाए ? आदि कई बातें हैं, जिन पर सोचना प्रायः बन्ध हो गया है । इस संसार में सुखी लोगों की तरह दुःखी लोग भी पाये जाते हैं ! उसमें भी सुखी कम, दुःखी ज्यादा ! वास्तविकता यह भी है कि सुखी सदा के लिय सुखी नहीं, वैसे दुःखी सदा के लिये दःखी नहीं... ! यही तो यक्ष-प्रश्न है। भला ऐसा क्यों ? तो क्या आत्मा का स्वभाव ही ऐसा है ? नहीं, आत्मा का स्वभाव तो अनंत सुख है, शाश्वत सुख है ! तब क्या है ? शास्त्रकारों का कहना है कि आत्मा पर 'कर्म' का आवरण छाया हुआ है, अत: जीव के जिस बाह्य रूप के हमें दर्शन होते हैं, वह कर्मजन्य रूप है ! आत्मा के इस रूप-स्वरूप का निर्णय केवलज्ञानी वीतराग ऐसे परमात्मा द्वारा बहुत पहले ही किया गया है। परम सुख और अक्षय शान्ति प्राप्त करने के लिए आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त करना ही पड़ता है। यह कर्मबन्धन को तोड़ने का अपूर्व, एकमेव साधन तप है ! कर्म-क्षय के लिए तपश्चर्या करनी होती है। कहा गया है : 'कर्मणां तापनात् तपः' अर्थात् कर्मों को जो तपाये, वह तप है। तपाने का अर्थ है नाश करना । तपस्वी का लक्ष्य हमेशा कर्म-क्षय ही होना चाहिए । तप के मुख्य दो भेद हैं : बाह्य और आभ्यन्तर । वैसे कर्मक्षय करनेवाला तप आभ्यन्तर ही होता है। 'प्रशमरति' में भगवान उमास्वातिजी ने कहा है : "प्रायश्चितध्याने वैयावृत्यविनयाथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमभ्यन्तरं भवति ॥" प्रायश्चित, ध्यान, वैयावच्च, विनय, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय आभ्यन्तर तप के छह मुख्य भेद हैं । इनमें भी 'स्वाध्याय' को श्रेष्ठ तप कहा गया है । 'सज्झायसमो तवो नत्थि ।' ..
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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