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________________ ३१. तप वासनाओं पर कुपित योगी, अपने शरीर पर क्रोध करता है, रोष करता है और तपश्चर्या के माध्यम से शरीर पर आक्रमण कर देता है, टूट पड़ता है ! अरे, आत्मन् ! शरीर पर टूट पड़ने से क्या लाभ ? क्या तुम नहीं जानते कि शरीर तो धर्म-साधना का एकमेव साधक है ? काम-वासनाएँ शैतान हैं, शरीर नहीं ! अतः तपश्चर्या का लक्ष्य शरीर नहीं, बल्कि काम-वासनाएँ होना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण में ग्रन्थकार ने हमें यही विवेकदृष्टि प्रदान की है । इन्द्रियों को नुकसान हो, ऐसी तपश्चर्या नहीं करने की है । बाह्य तप की उपयोगिता आभ्यन्तर तप की दृष्टि से है और आभ्यन्तर तप को आत्मविशुद्धि का अनन्य साधन बताया है। हे तपस्वीगण ! तुम्हें इस अध्याय का ध्यान-पूर्वक पठन मनन करना होगा! ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः कर्मणां तापनात् तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥३१॥१॥ अर्थ : पण्डितों का कहना है कि कर्मों को तपानेवाला होने से तप, ज्ञान ही है । यह अन्तरंग तप ही इष्ट है, उसे वृद्धिंगत करनेवाला बाह्य तप भी इष्ट ही है। विवेचन : भला, ऐसा कौन भारतीय होगा, जो 'तप' शब्द से अनभिज्ञ अपरिचित हो ? तप करनेवाला तो तप से परिचित है ही, लेकिन जो तप नहीं
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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