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________________ ४५६ ज्ञानसार हो उठता है । हृदय अकथ्य आनन्दोमियों से छलक उठता है और मुखमण्डल अपूर्व सीम्यता से देदीप्यमान नजर आता है । तब उसे विषय-भोग की स्पृहा नहीं होती, ना ही काम-वासनाओं का संताप । अर्थात् आनन्द ही आनन्द का वातावरण छाया रहता है सर्वत्र ! 'भिक्षुरेकः सुखी लोके ।' यह कैसा सत्य का सत्य और सनातन सत्य है । जो ध्यानी है, वह भिक्षु / मुनि ऐसा अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर सकता है ! ९. अप्रमत्त : प्रमाद ! आलस ! व्यसन ! इस भूतावलि को तो कोसों दूर रख, वह परमात्म-स्वरुप के सन्निकट पहुँच जाता है। वह इसका कभी शिकार नहीं होता, बल्कि उसके अंग-प्रत्यंग से स्फूर्ति की किरणें प्रस्फुटित होती रहती हैं । निरंतर मन अपूर्व-असीम उत्साह से भरा-भरा रहता है। वह आसनस्थ हो या खड़ा... भव्य विभूति महामानव ही प्रतीत होता है। साथ ही ऐसा भास होता है जैसे वह परमात्मा की प्रतिकृति न हो ? अरे, वैभारगिरि पर ध्यानस्थ धन्ना अणगार के जब मगधाधिपति श्रेणिक ने दर्शन किये थे, तब वे ऐसी ही भव्य विभूति लगे थे, सहसा वे उनके समक्ष नतमस्तक हो गये ! उनके हृदय में सहसा भक्ति का प्रवाह प्रकट हो उठा ! अप्रमत्त ध्यानी महात्मा के दर्शन से श्रेणिक गद्गद् हो उठे थे और उसी क्षण अप्रमाद का अपूर्व प्रताप, मगध-नरेश श्रेणिक के भव-ताप को दूर करनेवाला साबित हुआ । ध्यानी के आगे अभिमानी का अभिमान पानी हो जाता है और उसकी मौन वाणी प्राणी के प्राणों को नवपल्लवित कर देती है। १०. चिदानन्द-अमृत अनुभवी : ध्यानी महापुरुष को सर्वदा एक ही अभिरूचि होती है ज्ञानानन्द का जी भर रसास्वादन करने की । सिवाय इसके उसे इस संसार से कोई दिलचस्पी नहीं । ज्ञानानन्द का अमृत हो उसका पेय होता है । आत्मज्ञान का आस्वाद लेते वह जरा भी नहीं अघाता । ऐसे ध्यानी महात्मा अपने अन्तरंग-साम्राज्य का विस्तार करते हुए न जाने कैसा आत्म-तत्त्व बनाते हैं ! उसके साम्राज्य का वही एक मात्र अधिकारी और स्वामी ! अन्य कोई भूल कर भी उनकी इर्ष्या नहीं कर सकता । साथ ही उक्त साम्राज्य का ना ही कोई विपक्ष-शत्रु पक्ष है !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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