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________________ ध्यान ४५५ भटके ! बल्कि नासिका के अग्रभाग पर उसकी दृष्टि स्थिर रहनी चाहिए ! काया की स्थिरता के साथ-साथ दृष्टि की स्थिरता भी होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर दुनिया के अन्य तत्त्व मन में घुसपैठ करने से बाज नहीं आएगें और ध्यानभंग होते विलम्ब नहीं लगेगा ! द्रौपदी का पूर्वभव इसका साक्षी है। जब वह साध्वी ध्यान-ध्येय की पूर्ति हेतु नगर बहार गयी थी, तब उसकी दृष्टि सामनेवाले भवन में स्थित वेश्या पर पडी ! पाँच पुरुषों के साथ वह वेश्या रतिक्रीडा में रत थी। साध्वी की दृष्टि में यकायक वह दृश्य प्रतिबिम्बित हुआ । वह उसमें खो गयी और अपने उद्देश्य का विस्मरण कर गयी । क्षणार्ध के लिए वह मन में बुदबुदायी : "यह कितनी सुखी है ? एक नहीं, दो नहीं, पाँच-पाँच प्रेमियों की एक मात्र प्रेमिका ।" ध्येय रूप परमात्मा के बजाय वह दृश्य उसे अत्यन्त प्रिय लगा । फलस्वरूप वही उसका ध्येय बन गया ! आगे चल कर द्रौपदी के भव में वह पाँच पांडवों की पत्नी बनी ! परमात्मा के साथ तादात्म्य साधने के लिए दृष्टि-संयम अनिवार्य है। दृष्टिसंयम न रखनेवाला साधक परमात्म-स्वरूप की साधना नहीं कर सकता ! अतः उसे हमेशा अपनी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करनी चाहिये। ७. मनोवृत्तिनिरोधक : मन के विचार इन्द्रियों का अनुसरण करते हैं। निज चित्त को ध्येय में स्थिर करनेवाला साधक मनोवृत्तियों का निरोध करता है! तीव्र वेग से प्रवाहित विचार-प्रवाह में अवरोध पैदा करता है ! लेकिन जहाँ ध्येय में चित्त लीन हो गया... इन्द्रियों के पीछे दौडते मन पर प्रतिबन्ध आ जाता है, वह भागना बन्द करता है। आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध जुडते ही अनायास इन्द्रियों के साथ रहे उसके सम्बन्ध टूट जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में, 'मैं परमात्मा का ध्यान करूँ !' सोचते हुए, राह देखने की जरूरत नहीं । स्वयं परमात्मा-स्वरुप में आपको लीन कर दो। बस, इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध-विच्छेद हुआ ही समझो ! . ८. प्रसन्न : न जाने कैसी अद्वितीय प्रसन्नता ठूस ठूस कर भरी होती है ध्यानी पुरुष के मन में । परमात्म-स्वरुप में लीन होने का आदर्श ध्येय रखनेवाला ज्ञानी-ध्यानी महापुरुष जब अपनी मंजिल पर पहुँचता है और अपने आदर्श को सिद्ध होता अनुभव करता है, तब उसकी प्रसन्नता की अवधि नहीं रहती । वह एक तरह के दिव्य आनन्द में डूब जाता है। उसका रोम-रोम विकस्वर
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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