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________________ ध्यान ४५३ रुद्धबाह्यमनोवृत्तेर्धारणाधारयारयात् ! प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य चिदानन्दसुधालिहः ॥३०॥८॥ सामाज्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव वितन्वतः । ध्यानिनो नोपमा लोके सदेवमनुजेऽपि हि ॥३०॥९॥ अर्थ : जो जितेन्द्रिय है, धैर्ययुक्त है और अत्यन्त शान्त है, जिसकी आत्मा अस्थिरतारहित है, जो सुखासन पर बिराजमान है, जिसने नासिका के अग्रभाग पर लोचन स्थापित किये हैं और जो योगसहित हैं, ध्येय में जिसने चित्त की स्थिरता रुप धारा से वेग-पूर्वक बाह्य इन्द्रियों का अनुसरण करनेवाली मानसिकवृत्ति रोक लिया है, जो प्रसन्नचित्त हैं, प्रमादरहित हैं और ज्ञानानन्द रुपी अमृतास्वादन करनेवाला है; जो अन्तःकरण में ही विपक्षरहित चक्रवर्तित्व का विस्तार करता है, ऐसे ध्याता की, देवसहित मनुष्यलोक में भी सचमुच, उपमा नहीं है ! विवेचन : ये तीनों श्लोक, ध्याता-ध्यानी महापुरुष की लक्षण-संहिता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । १. जितेन्द्रिय : ध्यान करनेवाला पुरुष जितेन्द्रिय हो । इन्द्रियों का विजेता हो ! किसी इन्द्रिय का वह गुलाम न हो । कोई इन्द्रिय उसे हैरान-परेशान न करें। इन्द्रियाँ सदा महात्मा की आज्ञानुवर्ती बनकर रहें । इन्द्रिय-परवशता की दीनता कभी उसे स्पर्श न करे । इन्द्रियों की चंचलता से उत्पन्न राग-द्वेष का उनमें अभाव हो । ऐसा जितेन्द्रिय महापुरुष ध्यान से ध्येय में तल्लीन हो सकता २. धीर : सात्त्विक महापुरुष ही ध्यान की तीक्ष्ण धार पर चल सकता है । सत्वशाली ही दीर्घावधि तक ध्यानावस्था में टिक सकता है । ठीक वैसे ही आंतर-बाह्य उपद्रवों का सामना भी सत्वशील ही कर सकता है । जानते हो न महर्षि बने रामचन्द्रजी को सीतेन्द्र ने कैसे उपद्रव किये थे? फिर भी रामचन्द्रजी ध्यानावस्था से विचलित नहीं हुए ! कारण? उनके पास सत्व था और थी चित्त की दृढता ! इन्द्रिय-जन्य कोई मोहक विषय आकर्षित न कर सके, उसे सत्व
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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