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________________ ४५२ सकते । ज्ञानसार सिर्फ तपाराधना कर संतोष करनेवाले जीवों को अवश्य सोचना चाहिए कि भले ही वे मासक्षमण कर एक-एक स्थानक की आराधना करते हों और नवकारवाली का जाप जपते हों, लेकिन जब तक ध्येय में लीनता नहीं, तब तक तप कष्टक्रिया से अधिक कुछ भी नहीं । देवाधिदेव महावीर देव चार-चार महीने के उपवास जैसी घोर तपस्या कर दिन-रात ध्यानावस्था में लीन रहते थे । ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता साधते थे... । धन्ना अणगार छठ्ठ तप के पारणे छठ्ठ तप की आराधना करते थे.... और राजगृह के वैभारगिरि पर ध्यानस्थ रह, 'समापत्ति' साधते थे । ऐसा भी देखा गया है कि जिन-जिनों को मोक्षपद् प्राप्त करने की मनीषा नहीं है अथवा जो मोक्षगामी बननेवाले ही नहीं हैं ऐसे जीव भी बीस स्थानकादि तपों की आराधना तो करते रहते हैं... लेकिन उससे क्या होता है ? क्योंकि समापत्ति का फल जो तीर्थंकर नामकर्म है, उन्हें प्राप्त नहीं होता । यदि तपस्या की कोई फल - निष्पत्ति न होती हो तो अकारण ही तपश्चर्या का पुरुषार्थ करने से भला क्या लाभ... ? तात्पर्य यही है कि तपश्चर्या के साथ-साथ ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता सिद्ध करना नितान्त आवश्यक है । यदि ऐसी एकता का एकमेव लक्ष्य हो तो एक समय ऐसा आता है जब एकता सिद्ध हो जाती है । इस प्रकार का लक्ष्य ही न हो तो एकता असम्भव ही है । - बीस स्थानक की तपश्चर्या के साथ-साथ उन उन पदों का जाप और ध्यान धरना आवश्यक है ! अर्थात् उन पदो में लीनता प्राप्त करनी चाहिए । यह तभी सम्भव है जब इच्छा-आकांक्षाओं से मुक्ति मिल गयी हो। जब तक हमारा मन भौतिक, सांसारिक पदार्थों की चाह से किलबिलाता रहेगा तब तक ध्येयलीनता प्रायः असम्भव ही है । अतः 'समापत्ति' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आराधना है। जितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशांतस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्थस्य नासाग्रन्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥३०॥७॥
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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