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________________ ध्यान ४५१ है। जबकि भौतिक सम्पत्ति भी विपुल होती है... यश, कीर्ति और प्रभाव भी अपूर्व होता है। इत्थं ध्यानफलाद् युक्तं विंशतिस्थानकाद्यपि । कष्टमात्रं त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवे ॥३०॥५॥ अर्थ : इस तरह ध्यान के परिणामस्वरुप 'बीस-स्थानक' आदि तप भी योग्य है, जबकि कष्टमात्ररुप (तप) अभव्यों को भी इस संसार में दुर्लभ नहीं है। विवेचन : शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि 'बीस स्थानक' तप तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । अर्थात् तीर्थंकर भगवान् अपने पूर्व के तीसरे भव में इस तप की आराधना साधना कर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करते हैं । ___ समाप्ति' का फल यदि अप्राप्य है। कष्ट रूप तप की आराधना अभव्य भी करते हैं । लेकिन उन्हें समापत्ति का फल कहाँ उपलब्ध होता है? अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन सिर्फ कष्टप्रद क्रियाएँ करने से सम्भव नहीं है । उसके लिए चाहिए समापत्ति ! जिस बीस स्थानक की आराधना करनी होती है वे निम्नानुसार होते है : १. तीर्थकर, २. सिद्ध, ३. प्रवचन, ४. गुरु, ५. स्थविर, ६. बहुश्रुत, ७. तपस्वी, ८. दर्शन, ९. विनय, १०. आवश्यक, ११. शील, १२. व्रत, १३. क्षणलव-समाधि, १४. तप-समाधि, १५. त्याग (द्रव्य से), १६. त्याग (भावपूर्वक), १७. वैयावच्च, १८. अपूर्व ज्ञान-ग्रहण, १९. श्रुत-भक्ति, २०. प्रवचन-प्रभावना चौबीस तीर्थंकरों में से प्रथम ऋषभदेव एवं अंतिम महावीरदेव ने इन बीस स्थानकों की आराधना अपने पूर्वभवों मे की थी, जबकि बीच के २२ तीर्थंकर-जिनेश्वरों में से किसीने दो, किसीने तीन इस तरह अनियमित संख्या में आराधना की थी। अलबत्त, तमाम आराधना-साधना में ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकतास्वरुप 'समाप्ति' तो थी ही । इसके बिना 'तीर्थंकर नामकर्म' बांध नहीं
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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