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ज्ञानसार
परस्पर विलीन हो जाते हैं, तब अभेद का आरोप किया जाता है।
हम अन्तरात्मा बनें । समस्त इच्छाओं का क्षय करें। परमात्मा का ध्यान धरें ! तब मणि सदृश हमारी विशुद्ध आत्मा में नि:संशय परमात्मा का प्रतिबिम्ब उभरेगा... ! न जाने वह क्षण कैसा धन्य होगा । क्षणार्ध के लिए आत्मा अनुभव करती है, जैसे 'मैं परमात्मा हुँ।' 'अहं ब्रह्मास्मि !' यह बात इस भूमिका पर सही होती है।
आपतिश्च ततः पुण्यतीर्थ कृत्कर्मबन्धतः । तद्भावाभिमुखत्वेन सम्पत्तिश्च क्रमाद् भवेत् ॥३०॥४॥
अर्थ : उक्त समाप्ति से पुण्य-प्रकृत्तिस्वरुप 'तीर्थंकर-नामकर्म' के उपार्जन रुप फल की प्राप्ति होती है और तीर्थंकरत्व के अभिमुखत्व से क्रमश: आत्मिक सम्पत्तिरुप फल की निष्पत्ति होती है।
विवेचन : समापत्ति ! आपत्ति ! सम्पत्ति ! समापत्ति से आपत्ति और आपत्ति से सम्पत्ति ।
'आपत्ति' का मतलब आफत नहीं, कोई दुःख या कष्ट नहीं ! किसी प्रकार की वेदना अथवा व्याधि नहीं, बल्कि कभी भी नहीं सुना हो ऐसा अर्थ है ! यहाँ 'आपत्ति' शब्द का प्रयोग पारिभाषिक अर्थ में किया गया है !
'तीर्थंकर-नामकर्म' उपार्जन करना यह आपत्ति है ! हाँ, समाप्ति से तीर्थंकर नामकर्म का बन्धन होता है और वह 'आपत्ति' है। जो आत्मा यह नामकर्म का उपार्जन करती है, वही तीर्थंकर बनती है और धर्मतीर्थ की स्थापना कर विश्व में धर्म-प्रकाश फैलाती है।
कर्म आठ प्रकार के होते हैं, जिनमें से एक 'नामकर्म' है। यह नामकर्म १०३ प्रकार का है, जिसमें से एक प्रकार 'तीर्थंकर नामकर्म' है । जो आत्मा इस कर्म का बन्धन करती है, वह तीसरे भव में तीर्थंकर बनती है ।
तीसरे भव में जब उसका जन्म होता है तब से ही सम्पत्ति ! गर्भावस्था में ही तीन ज्ञान से युक्त ! स्वाभाविक वैराग्य ! यही उनकी आत्मिक सम्पत्ति