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________________ ध्यान ४४९ ___ हम क्षीणवृत्ति बन जाएँ । मतलब, वृत्तियों का क्षय कर दें ! समग्र इच्छाओं का क्षय ! क्योंकि इच्छाएँ ही एकाग्रता में सर्वाधिक अवरोधक हैं । ज्यों ज्यों हम मलीनता-धुमिलता दूर करते जाएँगे त्यों त्यों हमारी आत्मा मणि की भाँति अपूर्व कांतिमय और पारदर्शक होती चली जाएगी और तब परमात्मा का प्रतिबिम्ब अवश्य उभर आएगा। अन्तरात्मा निर्मल हो और एकाग्रता भी हो तो परमात्मा का प्रतिबिम्ब अवश्य उभरेगा । यह 'समापत्ति' है। इसके लिए एक महत्त्वपूर्ण बात है क्षीणवृत्ति बनने की। समस्त इच्छाआकांक्षाओं से मुक्ति ! एकाग्रता में सबसे बडा विघ्न है-ये इच्छाएँ । इच्छा ही परमात्मा-स्वरुप के साक्षात्कार में अवरोधक है । 'मणेरिवाभिजातस्य क्षीणवृत्तेरसंशयम् । तात्स्थ्यातष्ठ तदञ्जनत्वाच्च समापत्तिः प्रकीर्तिता ॥' 'सर्वोत्तम मणि की तरह क्षीणवृत्ति आत्मा में परमात्मा के संसर्गारोप से और परमात्मा के भेद आरोप से नि:संशय 'समाप्ति' होती है !' तात्स्थय : अन्तरात्मा में परमात्मगुणों का संसर्गारोप । तदञ्जनत्व : अन्तरात्मा में परमात्मा का अभेदारोप । 'संसर्गारोप, किसे कहते हैं ? यही जानना चाहते हो न ? आरोप के दो प्रकार हैं। संसर्ग और अभेद । सिद्ध परमात्मा के अनंत गुणों में अन्तरात्मा का आरोपी यानी संसर्ग-आरोप । परमात्मा के अनंत गुणों में एकाग्रता का प्रादुर्भाव होते ही समाधि प्राप्त होती है। समाधि ही ध्यान का फल है, यही अभेद-आरोप है। प्रश्न : इसे भला, 'आरोप' की संज्ञा क्यों देते हो ? उत्तर : इसका यही कारण है कि यह तात्त्विक अभेद नहीं है। परमात्मा का आत्म-द्रव्य और अन्तरात्मा का आत्म-द्रव्य, दोनों भिन्न हैं । इन दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व का विलीनीकरण असम्भव है। दो भिन्न द्रव्य एक नहीं बन सकते । अत: भावदृष्टि से जब दोनों आत्म-द्रव्यों का संगम होता है, समरस होकर
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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