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ज्ञानसार
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हो । लेकिन अगर अन्तरात्मा नहीं हो और केवल सम्यग्दृष्टि होने का ही दावा करते हो तो तुम एकाग्र नहीं बन सकते । ध्येय का ध्यान नहीं कर सकते । सम्यग्दृष्टि के साथ-साथ अन्तरात्मदशा होना निहायत आवश्यक है ।
अरिहंत के विशुद्ध और परम प्रभावी आत्म- द्रव्य का ध्यान कर । उनके अनंत - ज्ञानादि गुणों का चिंतन कर । अष्ट प्रातिहार्य आदि पर्याय का निरंतर ध्यान धर । अरिहंत-पुष्प के चारों और मधुर गुंजारव करता भ्रमर बन जा । सिवाय अरिहंत के, दुनिया की कोई चीज अच्छी न लगे । ना ही अरिहंत के सिवाय कोई ध्येय हो । भावार्थ यह कि तुम्हारी मानसिक - सृष्टि में अरिहंत के अतिरिक्त कुछ भी न हो ।
यही है ध्याता, ध्यान और समाधि की समापत्ति ।
मणीविव प्रतिच्छाया समापत्तिः परमात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले ॥ ३० ॥३॥
अर्थ : मणि की भाँति क्षीणवृत्तिवाले शुद्ध अन्तरात्मा में ध्यान से परमात्मा का प्रतिबिम्ब दमक उठे, उसे 'समापत्ति' कहा है ।
विवेचन : मणि कभी देखा है ? उत्तम स्फटिक में कभी प्रतिबिम्ब उभरते देखा है ? यदि यह न देखा हो तो भी नि:संदेह, तुमने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब उभरते तो अवश्य देखा होगा ?
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मणि हो, स्फटिक हो अथवा दर्पण हो वह गन्दे या अस्वच्छ नहीं चाहिए, बल्कि निर्मल-स्वच्छ होने चाहिये । तभी उसमें किसी का प्रतिबिम्ब उभर सकता
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है ।
यदि आत्मा अस्वच्छ, गन्दी और मैली हो तो उसमें परमात्मा का प्रतिबिम्ब क्या उभरेगा ? नाहक हाथ-पाँव मारने से काम नहीं चलेगा। यह सही है कि मलीन आत्मा में कभी परमात्मा का प्रतिबिम्ब नहीं उभरेगा । तब प्रश्न यह उठता है कि हमारी आत्मा में परमात्मा का प्रतिबिम्ब उभरे - ऐसी क्या हमारी हार्दिक इच्छ है ? तब हमें अपनी आत्मा को उज्ज्वल / दीप्तिमान बनानी चाहिए !