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ध्यान
ध्यान करने योग्य यदि कोई है, तो सिद्ध परमात्मा । आठ कर्मों के क्षय से जिन आत्माओं का शुद्ध-विशुद्ध स्वरुप प्रकट हुआ है, ऐसी शुद्धात्माएँ ध्येय हैं । अथवा वे आत्माएँ जो कि घाती कर्मों के क्षय से अरिहंत बने हैं वे ध्येय हैं । 'प्रवचनसार' ग्रन्थ में ठीक ही कहा है :
जो जाणइ अरिहंते दव्वत - गुणत्त - 1 - पज्जवत्तेहिं । सो जाणइ अप्पाणं मोहो खलु जाइ तस्स लय ॥
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'जो अरिहंत को द्रव्य - गुण एवं पर्याय रूप में जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह नष्ट होता है ।'
अरिहंत को लक्ष्य बनाकर अन्तरात्मा ध्यान में लीन होती है। ध्यान का अर्थ है एकाग्रता की बुद्धि, सजातीय ज्ञान की धारा । अन्तरात्मा ध्येय रूपी अरिहंत में एकाग्र हो जाए । अरिहंत के द्रव्य, गुण और पर्याय सजातीय ज्ञान है । तात्पर्य यह है कि द्रव्य, गुण और पयीय से अरिहंत का ध्यान करना चाहिए।
'ध्यान शतक' में ध्यान का स्वरूप दर्शाया है :
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं चलं तयं चित्तं ।
तं होज्ज भावणा वा अणुप्पेहा वा अहव चिंता ॥
'अध्यवसाय यानी मन और स्थिर मन यही ध्यान है । चंचल मन को चित्त कहा जाता है | ध्यान की वह क्रिया भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिंतन स्वरुप होती है ।'
हे जीव, तू अन्तरात्मा बन । विभावावस्था से सर्वथा निवृत्त हो जा । स्वभावावस्था की ओर गमन कर । आत्मा से परे... आत्मा से भिन्न ऐसे द्रव्यों की ओर दृष्टिपात भी न कर । अर्थात् जड़ द्रव्य एवं उसके विविध पर्यायों के आधार से राग-द्वेष करना बन्धकर । जब तक तुम बहिरात्मदशा में भटकते रहोगे, निःसंदेह तब तक ध्येय रुपी परमात्मा के साथ एकाकार नहीं हो सकोगे । इसीलिए कहता हुँ कि अन्तरात्मा बन । अन्तरात्मा ही एकाग्र बन सकती है। परमात्मस्वरुप की एकाग्रता बहिरात्मा के भाग्य में नहीं है ।
आत्मन् । यदि तुम सम्यग्दृष्टि हो तो ध्यान में लीन - तल्लीन बन सकते