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________________ ४४६ ज्ञानसार होती जाएगी और तब आप अनुभव करेंगे कि, 'मैं सुखी हूँ, मेरे सुख में निरंतर वृद्धि होती जा रही है।' आपने जब मुनि-पद प्राप्त कर लिया है तब यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि, 'संकल्पित ध्येय में मन स्थिर नहीं रहता ।' जिस ध्येयपूर्ति के लिए आपने भरा-पूरा संसार छोड दिया, ऋद्धि-सिद्धियों का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण की, उस ध्येय में आपका मन स्थिर न हो यह सरासर असम्भव बात है। जिस ध्येय का अनुसरण करने हेतु आपने असंख्य वैषयिक सुखों का त्याग कर दिया, उस ध्येय के ध्यान में आपको आनन्द न मिले, यह असम्भव बात है। हाँ, सम्भव है कि आप अपने ध्येय को ही विस्मरण कर गये हो और ध्येयहीन जीवन व्यतीत करते हो तो आपका मन ध्येय-ध्यान में स्थिर होना असम्भव है। साथ ही, ऐसी स्थिति में आप सुखी भी नहीं रह सकते । आपको अपना मन ही खाता रहता है । फिर भले ही इसके लिए आप ‘पापोदय' का वहाना करें अथवा अपनी भवितव्यता को दोष दें। - ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता का समय ही परमानन्द-प्राप्ति की मंगल-बेला है, परम ब्रह्म-मस्ती का सुहाना समय है और है मुनिजीवन जीने का अपूर्व आह्लाद । ध्याताऽन्तरात्मा ध्येयस्तु परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं चैकाग्रयसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥३०॥२॥ अर्थ : ध्यान-कर्ता अन्तरात्मा है, ध्यान करने योग्य परमात्मा हैं और ध्यान एकाग्रता की बुद्धि है । इन तीनों की एकता ही समापत्ति है। विवेचन : अन्तरात्मा बने बिना ध्यान असम्भव है । बहिरात्मदशा का परित्याग कर अन्तरात्मा बनकर ध्यान करना चाहिए । यदि हम सम्यग्दर्शन से युक्त हैं तो नि:संदिग्धरुप से अन्तरात्मा हैं । . जिसकि दृष्टि सम्यग् हो, वहां ध्येयरूपी परमात्मा के दर्शन कर सकता है अर्थात् एकता साघ सकता है । इसी दृष्टि से सम्यग्दृष्टि जीव को ही ध्यान का अधिकार दिया गया है ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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