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________________ ध्यान ४४५ तो वैषयिक सुखों की प्राप्ति के बजाय उसके त्याग में ही सुख माना है न? वैषयिक सुखों की अप्राप्ति के कारण ही सारी दुनिया दुःख से चित्कार कर रही है। जबकि आपने तो, अपने जीवन का आदर्श ही सुख-त्याग को बना लिया है । इन्द्रियों के आप स्वामी हो.., आपने पाँचो इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है... ! आपकी आज्ञा के बिना उनकी कोई हरकत नहीं ! ठीक वैसे ही आपने अपने मन को भी वैषयिक सुखों से निवृत्त कर दिया है । सांसारिक भावों से निवृत्तं मन सदा-सर्वदा ध्यान में लीन रहता है ! ध्याता, ध्येय और ध्यान की अपूर्व एकता आपने सिद्ध कर ली है... फिर भला, दुःख कैसा और किस बात का ? मुनिराज ! आपकी साधना, वैषयिक सुखों से निवृत्त होने की साधना है । जैसे जैसे आप इन सुखों से निस्पृह बनते जायें वैसे वैसे कषायों से भी निवृत्ति ग्रहण करते जायें । आप यह भलीभाँति जानते हैं कि वैषयिक सुखों की स्पृहा की कषायोत्पत्ति का प्रबल कारण है । शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के सुखों की इच्छा को ही नामशेष करने के लिए आपकी आराधना है । अतः आप अपने मन को एक पवित्र तत्त्व से बाँध लें ! ध्येय के ध्यान में आप आकण्ठ डूब जाएँ ! साथ ही अपनी मानसिक सृष्टि में इस महान् ध्येय के अतिरिक्त किसीको घुस पैठ न करने दें। हाँ, यदि आपका मन अपने ध्येय से हट गया और किसी अन्य विषय पर स्थिर हो गया तो आपका सुख छिनते देर नहीं लगेगी ! जानते हैं न विश्वामित्र ऋषि का चित्त अपने ध्येय से च्युत हो कर रुपयौवना मेनका पर स्थिर हो गया; होते ही क्या स्थिति हुई ? उनकी सुख-शान्ति और परम ध्येय ही नष्ट हो गया ! नंदिषेण मुनि और आषाढाभूति मुनि के उदाहरण कहाँ आपसे छिपे हुए हैं ? ___ अतः आप सिर्फ एक ही काम कीजिए-भौतिक सुखों की स्पृहा को बहार खदेड़ दीजिए और भूलकर भी वैषयिक सुखों का कभी विचार न करिए। वैषयिक सुखों की संहारकता का और असारता का भी चिंतन न करिए । अब आप अपने निर्धारित 'ध्येय' में स्थिर होने का प्रयत्न कीजिए । जिस गति से आपकी ध्येय-तल्लीनता बढ़ती जाएगी, ठीक उसी अनुपात में आपके सुख में वृद्धि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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