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________________ भावपूजा ४३९ करनी है। इस दीपक के दिव्य प्रकाश में ही आतमदेव का सत्य स्वरुप देखा जा सकता है। अतीन्द्रिय परमब्रह्म का दर्शन विशुद्ध अनुभव से ही सम्भव है। शास्त्रों के माध्यम से हमें सिर्फ 'अनुभव' की कल्पना ही करनी रही ! केवलज्ञान के अरुणोदय की मन को मुग्ध करनेवाली लालिमा की कल्पना कैसी तो मोहक और चित्ताकर्षक है। और अब पूजन करना है-गीत, नृत्य एवं वाद्य से । आतमदेव के समक्ष अनूठी धुन छेड़ दो । गीत की ऐसी लहरियाँ विस्फारित हो जाएँ कि जिसमें मन की समस्त वृत्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँ । गाते-गाते नृत्यारंभ कर दो । हाथ में साज लेकर नृत्य करना और करना भावाभिनय । वाद्य-वादन के मीठे सुर तुम्हारे कण्ठस्वरों को बहका दें और नृत्यकला सोलह कलाओं से विकसित हो उठे । धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों की एकता-स्वरूप संयम, यह आतमदेव का सर्वश्रेष्ठ पूजन है । एक ही विषय में इन तीनों की एकता होनी चाहिये । हमें अपनी आत्मा में धारणा, ध्यान और समाधि की अपूर्व एकता साधनी है। संयम का यह उच्चतम, उत्तुंग शिखर है और योग की सर्वोत्कृष्ट भूमिका। इस तरह आत्मा के पूजन का यह अनोखा रहस्य प्रकट कर दिया गया है। जिस तरह मन्दिर के रंग-मंडप में कोई स्वर-सम्राट झूम-झूम कर अद्वितीय सूरावलियाँ बहा रहा हो, कोई नृत्यांगना अपनी अभिनय कला का प्रदर्शन कर रही हो और इस गीत-नृत्य को साथ देनेवाला कोई महान् वाद्यवादक अद्भुत वीणावादन कर रहा हो; ऐसे प्रसंग पर जिस तरह सर्वत्र तन्मयता-तादात्मय का वातावरण निर्मित होता है, ठीक उसी तरह धारणा, ध्यान और समाधि के ऐक्य में संयम का अपूर्व वातावरण जम जाता है । ऐसे समय आतमदेव का मन्दिर कैसा पवित्र, प्रसन्न और प्रफुल्लित बन जाता होगा, इसकी स्थिर चित्त से कल्पना करें।... इस कल्पनालोक में खो जाने पर ही उसकी वास्तविक झांकी सम्भव है। स्वरुप में तन्मय होने का यह उपदेश है और स्वभाव अवस्था में गमन
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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