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________________ ४३८ ज्ञानसार आस्वाद करते हैं। आतमदेव की आरती करने के लिये भले ही हम 'सामर्थ्ययोगी' न बन सकें लेकिन 'इच्छायोगी' बन धर्म-सन्यास और योग-सन्यास की मधुरता का लाभ तो अवश्य उठा सकते हैं। नि:सन्देह यहाँ आत्मा की उच्चतम अवस्था का प्रतिपादन है । पूजा के माध्यम से उक्त अवस्था का यहाँ दर्शन कराया गया है । ज्ञानयोगी किस तरह पूजन करते हैं, इसकी झाँकी बतायी गयी है । ठीक वैसे ही इस प्रकार का पूजन केवल ज्ञानयोगी ही कर सकते हैं, ना कि सामान्य योगी। विशेषतः प्रस्तुत पूजनविधि ज्ञानपरायण मुनिश्रेष्ठों के लिए ही प्रदर्शित की गयी है । संयमशील और ज्ञानी महात्मा ही ऐसा अपूर्व पूजन कर अनहद और अद्भुत आनन्द का अनुभव करते हैं। स्फुरन्मंगलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः । योगनृत्यपरस्तौर्यत्रिक-संयमवान् भव ॥२९॥६॥ अर्थ : अनुभव रुप स्फुरायमान मंगलदीप को समक्ष (आत्मा के सामने) प्रस्थापित कर । संयमयोग रुपी नृत्य-पूजा में तत्पर बन, गीत, नृत्य और वाद्यइन तीन के समूह जैसा संयमशील बन । (किसी एक विषय में धारणा, ध्यान और समाधि को संयम कहा जाता है) विवेचन : अब दीपकपूजा करें। आतमदेव के समक्ष दीपक प्रस्थापित करना है। इस दीपक का नाम है-अनुभव । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अनुभव' की अनोखी परिभाषा दी है। ‘सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् । बुधैरनुभवो दृष्टः केवलार्कारुणोदयः ॥' .... जिस तरह दिन और रात्रि से सन्ध्या अलग है, ठीक उसी तरह 'अनुभव' केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से सर्वथा भिन्न, सूर्य के अरुणोदय समान है। ज्ञानी । भगवन्तों ने 'अनुभव' की परिभाषा । व्याख्या इस तरह की है । केवलज्ञान के अत्यन्त समीप की अवस्था । इस 'अनुभव' को लेकर श्री आत्मदेव की दीपपूजा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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