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________________ ४३७ भावपूजा पूजन-विधि में निम्नांकित दो विधियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती हैं-१. लवण उतारना और २. आरती उतारना । उपर्युक्त दोनों क्रियाओं को यहाँ कैसा तात्त्विक स्वरूप प्रदान किया गया है ! लेकिन इस तरह का पूजन क्षपकश्रेणि पर चढनेवाला ही कर सकता है ! जब क्षपकश्रेणी में जीव दूसरा अपूर्वकरण करता है तब तात्त्विक दृष्टि से 'धर्मसन्यास' नामक सामर्थ्ययोग होता है, अर्थात् ऐसे प्रसंग पर योगीजन क्षमा, आर्जव और मार्दवादि क्षायोपशमिक धर्म से पूर्णतया निवृत्त होते हैं । लेकिन जो क्षपकश्रेणि पर आरूढ नहीं हो सकते, ऐसे जीवों के लिए भी 'धर्मसन्यास' बताया गया है और वह है-औदायिक धर्मों का सन्यास । सन्यास का अर्थ है-त्याग । अज्ञान, असंयम, कषाय और वासनाओं के त्याग को 'धर्म-सन्यास' कहा गया है। ऐसा त्याग करना यानी लवण उतारना । ऐसा धर्म-सन्यास पाँचवें-छठे गुणस्थान पर रहे श्रावक-श्रमणों को होता है, जबकि पहले प्रकार का धर्म-सन्यास केवल क्षपकश्रेणि में ही होता है। धर्म-सन्यास की अग्नि में क्षायोपशमिक धर्मों को स्वाहा कर नोन (लवण) उतारने के उपरान्त ही कवि का यह कथन सिद्ध होता है : 'जिम जिम तड़ तड़ लूण ज फूटे, तिम तिम अशुभ कर्मबन्ध ज टूटे' लूण उतारने की स्थूल क्रिया, तात्त्विक मार्ग का एक मात्र प्रतीक है। अब आरती कीजिए । सामर्थ्ययोग की आरती उतारिए । सामर्थ्ययोग क्षपकश्रेणि में होता है। उसके दो भेद हैं-धर्म-सन्यास और योग-सन्यास । धर्मसन्यास में लवण उतारने की क्रिया का समन्वय क्रिया, जबकि आरती में 'योगसन्यास' का समन्वय कीजिए । योग-सन्यास का अर्थ है-योग का त्याग । यानी कायादि के कार्यों का त्याग । कायोत्सर्गादि क्रियाओं का भी त्याग । अलबत्ता, ऐसा उच्च कोटि का त्याग केवलज्ञानी भगवन्त ही करते हैं... । हम तो सिर्फ उनके कल्पनालोक में विचरण कर क्षणार्ध के लिये केवलज्ञानियों की अनोखी दुनिया के दर्शन का
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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