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________________ ४३६ धूप डालकर आत्म मन्दिर में सुगन्ध फैलानी है 1 आत्मा के शुभ स्वरूप का ज्ञान ! सिर्फ आत्म- रमणता ! अशुभ का वहाँ स्थान नहीं और शुभ संकल्प की भी आवश्यकता नहीं । परमात्म-पूजन में प्रशस्त अनुराग होता है । परमात्मा के प्रति राग - अनुराग... पूजन-क्रिया की अभिरुचि यही तो शुभ संकल्प है । इन शुभ संकल्पों का आत्म-रमणता में विलीनीकरण करने की कृष्णागरू धूप की मीठी महक आत्म- मन्दिर में फैल जाती है । कैसी अद्भुत, अनोखी और अभिनव धूप- पूजा बताई है ! परमात्मा के मन्दिर में जाकर धूप - पूजा करनेवाले भाविकजन अगर प्रस्तुत दिव्य धूप-पूजा करने लगे तो ? अरे, मन्दिर की बात तो ठीक, लेकिन आत्ममन्दिर में स्थिर चित्त से धूप पूजा में मग्न हो जाए तो उक्त साधक के इर्द-गिर्द, चारों ओर कैसी मनभावन सुगन्ध फैल जाए ! ज्ञानसार आठ प्रकार के मदों के त्याग की भावना ही अष्टमंगल के आलेखन की पूजा है । शुभ संकल्पों का आत्मज्ञान में विलीनीकरण ही धूपपूजा है । न जाने कब ऐसा अपूर्व अवसर आएगा कि ऐसी पूजा कर परमानन्द का आस्वादन कर सकेंगे ? प्राग्धर्मलवणोत्तारं धर्मसन्यासवह्निना । कुर्वन् पूरय सामर्थ्यराजन्नीराजनाविधिम् ॥२९॥५॥ अर्थ : धर्मसन्यास रुपी अग्नि द्वारा पूर्ववर्ती क्षायोपशमिक धर्मस्वरुप लवण उतारते (उसका परित्याग करते ) सामर्थ्य - योगरूपी आरती की विधी पूरी करो । विवेचन : धर्म-सन्यास अग्नि है । औदयिक धर्म और क्षायोपशमिक धर्म लवण है सामर्थ्य योग सुन्दर, सुशोभित आरती है ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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