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________________ भावपूजा ४३५ . रहता है, तब भला किसकी जाति शाश्वत् रहती है ? अतः मैं जाति का अभिमान नहीं करूँगा। यदि शील अशुद्ध है तो कुलाभिमान किस काम का ? साथ ही अगर मेरे पास गुण-वैभव का भण्डार है, तो भी कुलाभिमान किस काम का ? हड्डी-मांस और रूधिर जैसे गंदे पदार्थों के भण्डारसदृश और व्याधि वृद्धावस्था से ग्रस्त इस शरीर के सौन्दर्य का भला गर्व किसलिये ? बलशाली क्षणार्ध में निर्बल बन जाता है और निर्बल बलशाली ! बल अनियत है, शाश्वत नहीं है... तब उसका गर्व किसलिये ? भौतिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति कर्माधीन है तब लाभ में फलकर कुप्पा क्यों होना ? जब मैं पूर्वधर महान् आत्माओं के अनन्त विज्ञान की कल्पना करता हूँ, तब उनकी तुलना में अपनी बुद्धि तुच्छ लगती है। अतः बुद्धि का अभिमान किसलिये ? और तप का घमंड ? अरे बाह्य-आभ्यन्तर तपश्चर्या की. घोर और उग्र - आराधना करनेवाले तपस्वी-महर्षियों का दर्शन करता हूँ, तब अनायास मैं नतमस्तक हो जाता हूँ। ज्ञान का मद हो ही नहीं सकता । जिसका आधार ग्रहण कर पार उतरना है, भला उसका आलम्बन लेकर डूबना कौन चाहेगा ? श्री स्थूलिभद्रजी का ज्वलन्त उदाहरण भूलकर भी ज्ञानमद नहीं करने देगा। पता : यह है अष्टमंगल* का आलेखन ! सुन्दर, सुगम और सरल ! आतमदेव के पूजन में इस विधि का उपयोग सही अर्थ में होना चाहिए । अब हमें धूप-पूजा करनी है। इसके लिए ऐसा-वैसा धूप नहीं चाहिये। कृष्णागरु धूप ही चाहिए । वह है-शुभ संकल्प । ज्ञानाग्नि में शुभ संकल्पस्वरूप ★ अष्ट मंगल में श्रीवत्स, स्वस्तिकं नन्दावर्त, मत्स्ययुगल, दर्पण, भद्रासन, सरावला और कुम्भ का समावेश है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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