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________________ ४३४ ज्ञानसार धर्म-ध्यान के चार आलम्बन : वाचना, पृच्छना (पृच्छा), परावर्तन और धर्मकथाओं में तन्मय रहना है। श्रुतज्ञान में रमणता पाना है। चार प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का अनुसरण करना है । अनित्य भावना भाते रहो और अशरण भावना से भावित बनो । एकत्व भावना और संसार भावना का चिन्तन-मनन करो । साथ ही आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय का निरंतर चिन्तन करो ।। . . ख्याल रहे, हमें आत्मा का पूजन निम्नानुसार करना है• क्षमा-पुष्पों की माला आरोपित करना है • निश्चय-धर्म और व्यवहार-धर्म रूपि दो वस्त्र परिधान कराना है, • धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान के अलंकारों से सजाना है ! आतमदेव कैसे तो सुशोभित दृष्टिगोचर होंगे ! उनके दर्शनमात्र से मनमयूर नृत्य कर उठेगा, झूम उठेगा और तब अन्य किसी के दर्शन करने की इच्छा ही नहीं होगी ! मदस्थानभिदात्यांगैलिखाग्रे चाष्टमंगलम् । ज्ञामाग्नौ शुभसंकल्पकाकतुण्डं च धूपय ॥२९॥४॥ अर्थ : आत्मा के आगे मदस्थानक के भेदों का परित्याग करते हुए अष्टमंगल (स्वस्तिकादि) का आलेखन कर और ज्ञानरूपी अग्नि में शुभसंकल्पस्वरुप कृष्णागुरु धूप कर ! विवेचन : वर्तमान में प्रचलित पूजन-विधि में अष्टमंगल का आलेखन नहीं किया जाता । लेकिन अष्ट मंगल की पट्टी का पूजन किया जाता है । त करना है आलेखन और उद्देश्य है-आठ मदों के त्याग का एक एक मंगल का आलेखन करते हुए एक-एक मद का त्याग करने की भावना प्रदशित करते रहना । .: कर्माधीन जीवों का एक गति से दूसरी गति में निरन्तर आवागमन होता
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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