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भावपूजा
४३३ हो, उसके पास यदि कोई जाए तो भला किस चीज की सुवास आएगी ? गुलाब की न? इसी तरह हे साधक ! यदि कोई तुम्हारे निकट आए तो वह क्षमा की सौरभ से तरबतर हो जाना चाहिये । फिर भले ही वह साधु हो या कोई खूखार डकैत, ज्ञानी हो या अज्ञानी, निर्दोष हो या दोषी !
- ध्यान रखना, कहीं क्षमा के पुष्प मुरझा न जाएँ । उन्हें सदैव-तरोताजा, पूर्ण विकसित रखना । क्षमा प्रदान करने का प्रसंग भला कब उपस्थित होता है? जब कोई हमारे साथ वैर-वृत्तियुक्त व्यवहार करता है, हम पर क्रोध करता है और सरेआम हमारी निन्दा-अपमान करते नहीं अघाता । ऐसे समय हम किसी पर क्रोध न करें, पलट कर उस पर प्रहार न करें... ना ही उसके प्रति जरा भी अरूचि व्यक्त करें ! इसी का नाम क्षमा है । जानते हो न तुम : 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' क्षमा वीर पुरुष का अनमोल आभूषण है । यही तो रहस्य है-आत्मा के गले में क्षमा के सुगंधित पुष्पों की माला आरोपित करने का । आत्मा की यह पुष्पपूजा है... । इसी रहस्य के प्रतीक स्वरूप मनुष्य परमात्मा की मूर्ति को पुष्प अर्पित करता है... पुष्पमाला पहनाता है। - निश्चय धर्म और व्यवहार धर्म-ये दो सुन्दर वस्त्र हैं, जिन्हें हमें आत्म देव को परिधान कराना है । कम से कम दो वस्त्र तो शरीर पर होने चाहिए न? एक अधो वस्त्र और दूसरा उत्तरीय और आतम-देव के दो वस्त्र हैं : निश्चय
और व्यवहार । अकेले निश्चय से भी काम नहीं बनता, ना ही अकेले व्यवहार से । व्यवहार-धर्म आत्म देव का अधोवस्त्र है, जबकि निश्चय धर्म उत्तरीय वस्त्र! दोनों का होना अत्यावश्यक है।
माला और वस्त्र परिधान कराने के पश्चात अलंकार पहनाने जरूरी हैं। बिना इनके आतमदेव की शोभा में चार चाँद नहीं लग सकते । अलंकार का नाम है-'ध्यान' । धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान आतमदेव के अलंकार हैं । अलंकार कीमती होने से धारण करने पर चोर-डकैतों का डर प्रायः बना रहता है । फलस्वरूप हमारा धर्मध्यान कोई चोर डकैत लूट न ले जाए, इसकी सावधानी बरतना निहायत जरूरी है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा की श्री और शोभा ध्यान से है।