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ज्ञानसार
४३२ का तुम्हारी कल्पना में हो ही नहीं सकता। शरीर का श्रृंगार कर या अन्य जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने का ख्याल स्वप्न में भी कहाँ से हो ?
हे प्रिय पूजक ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने न जाने हमें कैसा रोमांचकारी पूजन बताया है ? यह है भाव-पूजन । यदि हम दीर्घावधि तक सिर्फ द्रव्य-पूजन ही करते रहें और एकाध बार भी भाव-पूजन की ओर ध्यान न दिया, तो क्या हम पूर्णता के शिखर पर पहुँच सकेंगे? अतः हमें यह दिव्य-पूजन नित्य प्रति करना है।
किसी एकान्त, निर्जन भू-प्रदेश पर बैठ, पद्मासन लगाकर और आँखें मूंदकर पूजन प्रारंभ करो। फिर भले ही इसमें कितना भी समय व्यतीत हो जाए, तुम इसकी तनिक भी चिन्ता न करो । शुद्ध आत्मा-द्रव्य का घंटों तक पूजनअर्चन चलने दो । फलतः तुम्हें अध्यात्म के अपूर्व आनन्द का-पूर्णानन्द का अनुभव होगा। साथ ही तुम साधना-पथ का महत्त्व और मूल्य समझ पाओगे। भाव-पूजा की यह क्रिया कपोलकल्पित नहीं है, बल्कि रस से भरपूर कल्पनालोक है । विषय-विकारों का निराकरण करने का प्रशस्त पथ है।
स्नान से लगाकर नवांग-पूजन तक का क्रम ठीक से जमा लो ।
क्षमापुष्पस्त्रजं धर्मयुग्मक्षौमद्वयं तथा । ध्यानाभरणसारं च, तदने विनिवेशय ॥२९॥३॥
अर्थ : क्षमा रुपी फूलों की माला, निश्चय और व्यवहार-धर्म रुपी दो वस्त्र और ध्यानरुप श्रेष्ठ अलंकार आत्मा के अंग पर परिधान कर ।
विवेचन : आत्मदेव के गले में आरोपण करने की माला गूंथ ली है? तैयार कर ली है ? वह माला तुम्हें ही गूंथनी है। क्षमा की मृदु सुरभि से युक्त प्रफुल्लित पुष्पों की माला गूंथकर तैयार रख !
क्षमा के एक-दो पुष्प नहीं, बल्कि पूरी माला ! अर्थात् एकाध बार क्षमा करने से काम नहीं चलेगा, अपितु बार-बार क्षमा की सौरभ फैलानी होगी। क्षमा को सदैव हृदय में बिठाये रखो... । क्षमा-पुष्प की मीठी महक ही तुम्हारे अंगप्रत्यंग से प्रस्फुरित होती रहे ! जिस मनुष्य के गले में गुलाब के पुष्पों की माला