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________________ भावपूजा ४२९ विवेचन : पूजन ? तुम्हें किस का पूजन करना है ? पूजन कर क्या प्राप्त करना है ? इस का कभी विचार भी किया है ? नहीं किया है न ? तुम पूजन करना चाहते हो; अरे, तुम किसी का पूजन कर भी रहे हो...! अगणित इच्छाएँ, कामनाएँ और अभिलाषाओं को झोली फैलाकर पूजन का फल माँग रहे हो... सच है न ? लेकिन यह तो सोचो, तुम स्वयं पूजक तो हो ना ? पुजारी हो न ? पूजक अथवा पुजारी बने बिना तुम्हारी पूजा कभी सफल नहीं होगी, ना ही तुम्हारी मनोकामनायें पूरी होंगी । तुम्हारी आकांक्षा और अभिलाषायें सफल नहीं हो सकेंगी । तभी तो कहता हूँ, सर्व प्रथम पूजक बनो, पुजारी बनो । इसके लिये पहला काम स्नानादि से निवृत्त होना है, नहाना है। अरे भाई, स्नान से पाप नहीं लगेगा । मैं भली-भाँति जानता हूँ कि तुम मुनि हो और सचित जल के प्रयोग से पाप के भागीदार बनोगे, यह भी हो मेरे ख्याल से बाहर की बात नहीं है। फिर भी कहता हूँ कि स्नान कर लो । हाँ, तुम्हे ऐसा जल बताऊँगा कि जिसके उपयोग से पाप नहीं लगेगा ! 'दया' के जल से स्नान कर । इससे भी बेहतर है-दया के स्वस्थ, शीतल जलाशय में गोता लगा ले ! याद रख, सरोवर में स्नान करने का निषेध करनेवाले ज्ञानी पुरुष... भी तुम्हें दयासागर में गोता लगाने से रोकेंगे नहीं और ना ही तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध करेंगे। हाँ, जब तुम स्नान कर दयासागर के किनारे पर आओगे, तब तुम्हारी प्रसन्नता का ठिकाना न रहेगा । क्रूरता का मल पूरी तरह धुल गया होगा और उसके स्थान पर करुणा की कोमलता छा गयी हो गयी। तुम हर प्रकार से स्वच्छपवित्र बन गये होंगे। हे साधक ! स्नान के बाद तुम्हें नये वस्त्र धारण करने हैं-शुद्ध और श्वेत वस्त्र ! धारण करोगे न ? उन वस्त्रों में तुम सुशोभित-आकर्षक लगोगे और तब तुम्हें स्वयं ही एहसास होगा कि, तुम पूजक हो । जानते हो, वस्त्रों का नाम क्या है ? वस्त्र का नाम है-'संतोष' । सचमुच, कितना प्यारा नाम है ! तुम्हें पसन्द आया ? पुद्गलभावों की तृष्णा के वस्त्र परिधान कर कोई पूजक नहीं बन सकता। क्योंकि तृष्णा में रति-अरति का द्वंद्व है और है आनन्द-उद्वेग की अगणित
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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