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________________ २९. भावपूजा मुनिराज ! आत्मदेव की आपको पूजा करनी है । स्नान करना है और ललाट-प्रदेश पर तिलक भी लगाना है ! देव के गले में पुष्पमाला अर्पित करनी है और धूप-दीप भी करना है । किसी प्रकार के बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं, ना ही कोई बाह्य प्रवृत्ति ! यह है मानसिक भूमिका का पूजन-अर्चना । वैसे, ऐसा पूजन-अर्चन करने का अधिकार सिर्फ साधु-श्रमणों को ही है, लेकिन गृहस्थ नहीं कर सकते, ऐसी बात नहीं है । गृहस्थ भी बेशक कर सकते हैं... | परन्तु वे साधना-आराधना की दृष्टिवाले हों। कभी-कभार तो कर लेना ऐसी अद्भुत भावपूजा ! अपूर्व आह्लाद की अनुभूति होगी। दयाम्भसा कृतस्नानः संतोषशुभवस्त्राभूत । विवेकतिलकभ्राजी, भावनापावनाशयः ॥२९॥१॥ भक्तिश्रद्धानघुसृणोन्मिश्रपाटीरजद्रवैः । नवब्रह्मांड गतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ॥२९॥२॥ अर्थ : दया रूपी जल से स्नात, संतोष के उज्ज्वल वस्त्र का धारक, विवेक, तिलक से सुशोभित, भावना से पवित्र आशयवाला और भक्ति तथा श्रद्धास्वरूप केसरमिश्रित चन्दन से शुद्ध आत्मा रुप देव की, नौ प्राकर के ब्रह्मचर्य रुपी नौ अंगो का पूजन करें ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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