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ज्ञानसार
तरंगें । ऐसी तृष्णा के रंग-बिरंगे वस्त्र धारण कर तुम पूजक नहीं बन सकते । अतः तुम्हें 'संतोष' के वस्त्र परिधान करने हैं। एक बार इन्हें धारण कर तू पूजक बन जा ! यदि पसन्द आ जाएँ, तो दुबारा पहनना । अर्थात् तुम्हें पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा का त्याग करना ही होगा, यदि तुम पूजक बनना चाहो तो ।
अरे भाई, कहाँ चल दिये ? पूजन करने ? जरा रुक जाओ। देव मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व तुम्हें तिलक करना होगा । ललाट-प्रदेश पर तिलक अंकित किये बिना तुम देव-मन्दिर में प्रवेश नहीं पा सकते । तुम्हारी काया दयासागर में स्नान करने से कैसी सुन्दर और लुभावनी हो गयी है ! संतोष-वस्त्र परिधान करने से तुम कैसे मोहक, आकर्षक लग रहे हो ? अब तुम 'विवेक' का तिलक लगाकर देखो । देवराज इन्द्र भी तुम्हारे सौन्दर्य की स्तुति करते नहीं थकेगा !
'विवेक' का तिलक ! विवेक यानी भेद-ज्ञान । जड़-चेतन का भेद समझ, चेतन आत्मा की ओर मुड़ना । जड़-पदार्थ शरीर में रही आत्मबुद्धि का परित्याग कर, 'शरीर से मैं (आत्मा) भिन्न हूँ।' इस तरह की श्रद्धा दृढ़ करना। 'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहम्,' 'मैं ही शुद्ध-विशुद्ध आत्म-द्रव्य हूँ।' ऐसे ज्ञान से आत्मा को भावित करने का नाम ही विवेक है । ऐसे विवेक का तिलक लगाना पूजक के लिये परमावश्यक है । सदा स्मरण रखना, इस विवेक-तिलक से तुम्हारी शोभा । सुन्दरता के साथ-साथ आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और तुम्हें प्रतीत होगा कि तुम पूजक हो।
अब तुम्हें अपने विचारों को पवित्र बनाना है। जिस परम आत्मा का पूजन करने की तुम्हारी उत्कट इच्छा है, उनकें (परमात्मा के) गुणों में तन्मयता साधने की भावनाओं के द्वारा अपने विचारों को पवित्र बनाना है। अर्थात्, शेष सभी भौतिक कामनाओं की अपवित्रता तज कर केवल परमात्मगुणों की ही एक अभिलाषा लेकर तुम्हें परमात्म-मन्दिर के द्वार पर पहुँचना है। जब तक परमात्मगुणों का ही एक मात्र आकर्षण और ध्यान दृढ़ न हो जाए, तब तक आशयपावित्र्य की अपेक्षा करना वृथा है... और देवपूजन के लिये आशय-पवित्रता के बिना चल नहीं सकता।
चलो, अब केशर का सुवर्णपात्र भर लो । अरे भई, यह केशर लो और