SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ ज्ञानसार पुण्य-बन्धन होता है, यह बताया गया है। यदि तुम्हारा ध्येय कर्मक्षय ही है, तो ज्ञान-यज्ञ करो ! लेकिन ऐसी भूल कदापि न करना की पुण्य-बन्धन की क्रियाओं का परित्याग कर पाप-बन्धन की क्रियाओं में सुध-बुध खो बैठो और कर्म-क्षय का उद्देश्य ही भूल जाओ । ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्मयज्ञान्तर्भावसाधनम् । ब्रह्माग्नौ कर्मणो युक्तं स्वकृतत्वस्मये हुते ॥ २८ ॥ ६ ॥ अर्थ : ब्रह्म यज्ञ में अन्तर्भाव का साधन, ब्रह्म को समर्पित करना, लेकिन ब्रह्मरूप अग्नि में कर्म का और स्व-कर्तृत्व के अभिमान का योग करते हुए भी युक्त है। : विवेचन : गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कांक्षतः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मणा ॥ - अध्याय ४ श्लोक १२ "मानव-लोक में जो लोग कर्मों की फलसिद्धि को चाहते हुए देवीदेवताओं का पूजन करते हैं, उन्हें कर्म-जन्य फलसिद्धि ही प्राप्त होती है ।" 1 प्राकृत मनुष्य सदैव कर्म करता रहता है और फल की इच्छा संजोये निरंतर दुःखी रहता है । इस दुर्दशा में से जीवों को मुक्त करने उपदेश दिया जाता है कि कर्म के कर्तृत्व का मिथ्याभिमान हमेशा के लिए छोड़ दो ! 'यह मैंने किया है, इसका कर्ता मैं हूँ !' आदि कर्तृत्व के अहंकार को ब्रह्मरूप अग्नि में स्वाहा कर दो, होम दो और नित्य प्रति यह भावना जागृत रखो कि 'मैं कुछ भी नहीं करता।' इसी भावना से कर्मक्षय सम्भव है । यही कर्मयज्ञ ब्रह्मयज्ञ का मूल साधन है। गीता में कर्तृत्व के अभिमान को तजने को कहा गया है : ब्रह्मेर्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मेव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ अध्याय ४, श्लोक २४. "अर्पण करने की क्रिया ब्रह्म है । होमने की वस्तु ब्रह्म है । ब्रह्मरूप
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy