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________________ ४२५ नियाग (यज्ञ) अग्नि में ब्रह्मरूप होमनेवाले ने जो होमा है वह भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्मसमाधिवाले का प्राप्ति-स्थान भी ब्रह्म है। अर्थात् 'जो कुछ है, वह ब्रह्म है... ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं । न मैं हूँ और ना ही कुछ मेरा है ! इस तरह 'अहं' को भूलने के लिए ही यज्ञ करना है। जो कछ भी है, उसे ब्रह्म में ही होम देना है। 'अहं' को भी ब्रह्म में स्वाहा कर देना है। यही वास्तविक ब्रह्मयज्ञ है । 'अहं' रुपी पशु को ब्रह्म में स्वाहा कर यज्ञ करने का उपदेश दिया गया है । जो कुछ बुरा हुआ तब ‘में क्या करूँ भगवान की यही मर्जी थी।' कह कर जीव उसे भगवान को अर्पण कर देता है, उनके नाम पर थोप देता है । लेकिन जो अच्छा होता है, इच्छानुसार होता है और मन-पसंद भी, 'वह मैंने किया है... मेरे पुण्योदय के कारण हुआ है।' कह कर मिथ्याभिमान का सरेआम ढिंढोरा पीटना निरी मुर्खता और मूढता है। जबकि भगवान के अस्तित्व के प्रति अटूट श्रद्धाधारक तो प्रायः यही कहता है कि 'जो कुछ होता है भगवान की मर्जी से होता है ।' उसके हर विचार, हर चिंतन और प्रत्येक व्यवहार का सूत्र भगवान के साथ जुड़ा हुआ है ! उसमें अपना कुछ भी नहीं होता, ना ही अहंकार का नामोनिशान ! 'नाहं पुद्गलभावानां कर्ता कारयितापि च ।' "मैं पुद्गलभावों का कर्ता नहीं हूँ, ना ही प्रेरक भी।' यह विचार ग्रन्थकार महर्षिने हमें पहले ही बहाल कर दिया है। अतः कर्तृत्व का मिथ्याभिमान ब्रह्मयज्ञ में नष्ट कर दो-यही इष्ट है, इच्छनीय भी । ब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो ब्रह्महम् ब्रह्मसाधनः । ब्रह्मणा जुह्वदब्रह्म ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् ॥२८॥७॥ ब्रह्माध्ययननिष्ठावान् परब्रह्मसमाहितः ! . ब्रह्मणो लिप्यते नाऽर्नियागप्रतिपत्तिमान् ॥२८॥८॥ अर्थ : जिसने अपना सर्वस्व ब्रह्मार्पण किया है, ब्रह्म में ही जिसकि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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