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नियाग (यज्ञ)
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क्या प्राप्त करना है ? क्या बनना है ? कहाँ जाना है ? जो तुम्हें प्राप्त करना है और जिसके लिए तम पुरुषार्थ कर रहे हो क्या वह प्राप्त होगा? जो तुम बनना चाहते हो, वैसे क्या तुम्हारी प्रवृत्ति से बन पाओगे ? जहाँ तुम्हे जाना है, वहाँ तुम पहुँच सकोगे क्या ?
वास्तव में देखा जाएँ तो तुम्हारे सारे कार्य-कलाप इच्छित उद्देश्य / ध्येय से शत-प्रतिशत विपरीत हैं। तुम्हें सिद्धि प्राप्त करनी है न? परम आनन्द, परम सुख की प्राप्ति हेतु तुच्छ आनन्द और क्षणिक सुख से मुक्ति चाहते हो? तुम्हें परमगति प्राप्त करनी है क्या ? तब चार गति के परिभ्रमण से मुक्त होना चाहते हो? तुम्हें सिद्ध-स्वरूपी बनना है ? तब निरंतर परिवर्तनशील कर्म-जन्य अवस्था से छूटने का पुरुषार्थ करते हो? तुम्हें शाश्वत्-शान्ति की मंजिल पहुँचना है न? तब सांसारिक अशान्ति, सन्ताप और क्लेश से परिपूर्ण स्थानों का परित्याग करने की तत्परता रखते हो न?
तुम्हारा लक्ष्य है इन्द्रियजन्य विषय-भोगों का और पुरुषार्थ करते हो धर्म का ! तुम्हें चार गति में सतत परिभ्रमण करना है और प्रयत्नशील हो धर्म-ध्यान के लिए ! तुम्हें आकण्ठ डूबे रहना है कर्मजन्य प्रयत्नशील अवस्था में और मेहनत करते हो धर्म की ! उफ् कैसी विडम्बना है कथनी और करनी में ? यदि हमारा ध्येय और पुरुषार्थ परस्पर विरोधी होगा तो कार्य-सिद्धि असम्भव है।
कर्मक्षय के पुरुषार्थ और पुण्य-बन्धन के पुरुषार्थ में जमीन-आसमान का अन्तर है । पुण्य-बन्धन हेतु आरम्भित पुरुषार्थ से कर्म-क्षय असम्भव है। हालांकि पुण्य-बन्धन के विविध उपाय शास्त्रों में अवश्य बताये गये हैं । लेकिन उन उपायों से कर्म-क्षय अथवा सिद्धि नहीं होगी, पुण्य-बन्धन अवश्य होगा !
कोई कहता है : "हिंसक यज्ञ में भी विविदिषा (ज्ञान) विद्यमान है।" लेकिन यह सत्य नहीं है । हिंसक यज्ञ का उद्देश्य अभ्युदय है, निःश्रेयस् नहीं। साथ ही निःश्रेयस के लिए हिंसक यज्ञ नहीं किया जाता ! पुत्र-प्राप्ति के लिए सम्पन्न यज्ञ में विविदिषा नहीं होती, ठीक उसी तरह सिर्फ स्वर्गीय सुखों की कामना से सम्पन्न दानादि क्रियाएँ भी सुख-प्राप्ति हेतु नहीं होती।
अलबत्त, दानादि क्रियाओं को यहाँ हेय नहीं बतायी गयी हैं, परन्तु उससे