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________________ ४१८ यज्ञ करते हैं !" गया है ज्ञानसार प्रस्तुत अष्ट में 'यज्ञ' के वास्तविक एवं मार्मिक स्वरुप का वर्णन किया 1 पापध्वंसिनि निष्कामे ज्ञानयज्ञे रतो भव ! सावद्यैः कर्मयज्ञैः किं भूतिकामनयाऽऽविलैः ॥२८॥२॥ अर्थ : पापों का नाश करनेवाले और कामनारहित ऐसे ज्ञान-यज्ञ में आसक्त हो ! सुखेच्छाओं से मलीन पापमय कर्म-यज्ञों का क्या प्रयोजन है ? विवेचन : तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? मन-वचन-काया के पुरुषार्थ की दिशा कौन सी है ? कौन सी तमन्ना मन में संजोये जीवन बसर कर रहे हो ? क्या पाप-क्षय करना तुम्हारा उद्देश्य है ? अपनी आत्मा को निर्मल / विमल बनाने की उत्कट महेच्छा है ? यदि यह सच है तो अविलम्ब ज्ञान-यज्ञ में जुड जाओ ! ऐसी परिस्थिति में पाँच इन्द्रियों को क्षणिक तृप्ति देनेवाले सुख की कामना हृदय के किसीकोने में भी नहीं होनी चाहिए। 'मुझे परलोक / स्वर्गलोक में दिव्य सुखों की प्राप्ति होगी !' ऐसी सुप्त कल्पना तक कहीं छिपी नहीं होनी चाहिए ! यह कभी न भूलो कि समस्त सुखों के प्रति नि:स्पृह - निरागी बनकर ही ज्ञानयज्ञ करना है ॥ क्या तुम्हें यह कहना है कि 'पापों का नाश करना, क्षय करना यह भी एक प्रकार की कामना ही है न ?' अवश्य है, लेकिन उसमें निष्काम भावना का तत्त्व अखंड रहा हुआ है । अतः उक्त कामना तुम्हें पापाचरण की दिशा में कभी अग्रेसर नहीं करेगी ! निःशंक, निश्चल और निर्भय बनकर पाप-क्षय के लिये ज्ञान यज्ञ आरम्भ करो । इस धरती पर स्वर्ग, पुत्र-परिवार, धन-संपदा आदि क्षुद्र कामनाओं की पूर्ति हेतु किये जानेवाले यज्ञ की अग्नि में आत्मा उज्ज्वल नहीं बनती अपितु जल जाती है ? ऐहिक - पारलौकिक सुखेच्छाओं के वशीभूत आत्मा मलिन और पापी बनती है । भोगैश्वर्य की कुटिल कामना आत्मा को मूढ बनानेवाली है। ऐसी
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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