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________________ नियाग (यज्ञ) ४१९ कामनाओं की पूर्ति हेतु यज्ञ मत करो । भोगैश्वर्य के तीव्र प्रवाह में प्रवाहित जीव घोर हिंसक यज्ञ करने के लिए तत्पर बनता है। घू-घू जलती आग की प्रचंड ज्वालाओं में निरीह पशुओं की बलि देकर (देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की मिथ्या कल्पना से) मानव स्वर्गीय सुख की कामना करता है। क्योंकि 'भूतिकामः पशुमालभेत' सदृश मिथ्या श्रुतियों का आधार जो उसे उपलब्ध हो जाता है ! यज्ञ करनेवाला और करानेवाला प्रायः मांसाहार का सेवन करता है ! शराब के जाम गले में उंडेलता है... और मिथ्या शास्त्रों का आलम्बन ले, अपना बचाव करता हैं । परनारी-गमन को भी वे धर्म के ही एक आचरण की मिथ्या संज्ञा देते हैं ! इस तरह महाविनाशकारी रौरव नरक में ले जानेवाले पापों का, यज्ञ के नाम पर आचरण करते हैं ! हमें ऐसे घृणित हिंसक यज्ञ का सरेआम प्रतिपादन करनेवाले मिथ्या शास्त्रों से सदा दूर रहना चाहिए । ज्ञान-यज्ञ में ही सदैव लीन रहना चाहिए । अपना जीव यज्ञ कुंड है । तप अग्नि है। मन-वचन-काया का पुरुषार्थ घृत उंडेलनेवाली कलछी है ! शरीर अग्नि को प्रदीप्त । प्रज्वलित करने का साधन है, जबकि कर्म लकडिया हैं ! संयम साधना शान्ति-स्तोत्र है... 'श्री उत्तराध्ययन' सूत्र के 'यज्ञीय-अध्ययन में ज्ञान-यज्ञ का इस तरह वर्णन किया गया है ! वेदोक्तत्वान् मनःशुद्धया कर्मयज्ञोऽपि योगिनः ! ब्रह्मयज्ञ इतिच्छन्तः श्येनयागं त्यजन्तन्ति किम् ? ॥२८॥३॥ अर्थ : "वेदों में कहा गया होने से मनः शुद्धि द्वारा किया गया कर्मयज्ञ भी ज्ञानयोगी के लिए ब्रह्म यज्ञ-स्वरुप है।" ऐसी मान्यतावाले भला 'श्येनयज्ञ' का त्याग क्यों करते हैं ? विवेचन : 'वेदोक्त है अत: सच्चा', यह मान्यता कैसे स्वीकार की जाए ? भले ही मनःशुद्धि हो और सत्त्वशुद्ध भी हो, फिर भी ऐसा कर्म यज्ञ कदापि उपादेय नहीं है, जिस में घोर हिंसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और जिस में अज्ञानता की दृष्टि रही हुई है ! वेदोक्त यज्ञ के आयोजकों से कोई प्रश्न करें कि, 'यदि हम मानसिक -
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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