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नियाग (यज्ञ)
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की बात है ! ठीक वैसे ही जड़ हिंसात्मक क्रियाकाण्ड नहीं है, अज्ञान जीवों की बलि चढाने का कोई प्रपंच नहीं है ।
कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवन्त श्री हेमचन्द्राचार्य ने, अपने मूल्यवान् ग्रन्थ 'त्रिषष्टीशलाका पुरुष चरित्र' में, हिंसक यज्ञों की उत्पत्ति का रहस्य नारद मुनि के मुख से लंकेश रावण को बताया है । वैर का बदला लेने की तीव्र लालसा के कारण उत्पन्न कषायों द्वारा हिंसक यज्ञों के पैदा होने का मर्मभेदी इतिहास बताया है।
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जैनेतर संप्रदायों में यज्ञ की उत्पत्ति को लेकर विविध मंतव्य प्रचलित हैं ! उनमें से एक मंतव्य यह भी है : प्रलय से पृथ्वी के बच जाने के बाद वैदस्विद् मनु ने सर्वप्रथम यज्ञ किया था ! तब से आर्य प्रजा में, पृथ्वी पर सूर्य के प्रतिनिधि अग्निदेव को प्रसन्न करने हेतु आहुति देने की प्रथा चल पडी है ! सामान्यतः ब्राह्मण-ग्रन्थ यज्ञ की सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रियाओं का विधान करते हैं ।
जिस तरह उपनिषदों में यज्ञ को, जड क्रियाविधि के बजाय अध्यात्म का रूप प्रदान किया गाया है, ठीक उसी तरह पूज्य उपाध्याय जी महाराज भी यज्ञ का एक अभिनव रूपक सबके समक्ष उपस्थित करते हैं !
जाज्वल्यमान ब्रह्म साक्षात् अग्नि है !
ध्यान (धर्म - शुक्ल) वेद की ऋचाएँ हैं !
कर्म (ज्ञानावरणादि) समिघ ( लकडियाँ) हैं !
ब्रह्म रूपी प्रदीप्त अग्नि में ध्यान रूपी ऋचाओं के उच्चारण के साथ ज्ञानावरणादि कर्मों का होम करना ही नियाग है ! नियाग यानी भावयज्ञ ! केवल क्रिया - काण्ड द्रव्य - यज्ञ है ! नियाग (भावयज्ञ) के कर्ता मुनि कैसा हो... उसके समग्र व्यक्तित्व का वर्णन 'उत्तराध्ययन' सूत्र में किया गया है :
सुसंवुडापंचर्हि संवरेहिं इह जीवियं अणवकंखमाणा । वोसटुकाया सुचइत्तदेहा जहाजवं जयइ जन्नसेट्टं ॥
“पाँच संवरों से सुसंवृत्त, जीवन के प्रति अनाकांक्षी / उदासीन, शरीर के प्रति ममत्वहीन, पवित्र और देहाध्यास के त्यागी, कर्म - विजेता मुनि सर्व श्रेष्ठ