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________________ २८. नियाग (यज्ञ) सम्भव है कि आधुनिक युग में तूमने यज्ञ का अनुष्ठान नहीं देखा होगा ! भूतकाल की तरह आज इतने बड़े पैमाने पर, व्यापक रुप में यज्ञ का आयोजन कहीं देखने में नहीं आता । फिर भी जो यज्ञनियाग होते हैं, क्या वह वास्तविक हैं ? सच्चा यज्ञ कैसे होता है, उनकी क्रियाएँ क्या है ? यहाँ तुम्हें यज्ञ में प्रयोग किये जानेवाले शब्द पठन हेतु मिलेंगे और तुम स्वयं स्वतंत्र रूप से यज्ञ कर सकोगे बिना किसी बात साधना और सहायता से ! ऐसी प्रक्रियाएँ इस अष्टक मैं बतायी गयी हैं । ऐसा महाकल्याणकारी यज्ञ हम नित्यनियम से करने का संकल्प करें तो... !!! यः कर्म हुतवान् दिप्ते ब्रह्माग्नौ ध्यानध्याय्य्या ! सो निश्चितेन यागेन नियागप्रतिपत्तिमान् ॥२८॥१॥ अर्थ : प्रदीप्त बाह्य रुपी अग्नि में जिसने ध्यान रुपी वेद की ऋचा (मन्त्र) द्वारा कर्मों का होम कर दिया है, ऐसा मुनि निर्धारित भावयज्ञ द्वारा नियाग को प्राप्त हुआ है। विवेचन : यज्ञ-याग ! जैन धर्म और यज्ञ-याग ? अरे भाई ! चौंक न पडो ! यहाँ ऐसे दिव्य यज्ञ का वर्णन किया गया है कि जिसे आत्मसात् कर तुम मन्त्रमुग्ध हो उठोगे ! यहाँ वेदों की विकृति में से उत्पन्न यज्ञ की बात नहीं है। ना ही अश्वमेघ यज्ञ है, ना हि पितृमेघ यज्ञ
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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