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योग
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हास होता है और तीर्थ का विच्छेदन ।
"धर्मक्रिया न करनेवालों से तो अविधिपूर्वक धर्मक्रिया करनेवाले बेहतर ।' यों कहकर अविधि का समर्थन करना सरासर गलत और अनुचित है। एक बार अविधि की परंपरा चल पड़ी, तो अविधि 'विधि' में परिणत होते विलम्ब नहीं लगता । तब यदि कोई शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपादन करेगा, तो भी वह 'अविधि' ही प्रतीत होगी । तुम्हारी तसल्ली के लिये पूज्य उपाध्यायजी के ही शब्दों में पढ़ो।
"शास्त्रविहित क्रिया का लोप करना यह कडवे फल देनेवाला है। स्वयं मृत्यु को प्राप्त हुए और खुद के हाथों मारने में कोई विशेषता नहीं, ऐसी बात नहीं; लेकिन इतनी विशेषता है कि स्वयं मृत्यु पाता है, तब उसमें उसका दुष्टाशय निमित्त रुप नहीं, जबकि अपने (उसके) हाथों मारना इसमें दृष्टाशय निमित्तं रूप है । ठीक उसी तरह क्रिया में प्रवृत्ति नहीं करनेवाले जीव की अपेक्षा से गुरु को कोई दोष नहीं । पन्तु अविधि के प्ररूपण का अवलम्बन कर श्रोता अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करे, तो उन्मार्ग में प्रवृत्ति कराने के परिणामवश अवश्य महादोष है । इस बात पर (तीर्थ-उच्छेदन) धर्मभीरु जीव को अवश्य विचार करना चाहिए ।
(-'योगाष्टक' श्लोक ८ का टब्बा) तात्पर्य यह है कि स्थानादि ५ योग, इच्छादि ४ योग और प्रीति आदि ४ योग का मार्ग दिखाकर पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने मोक्ष मार्ग के इच्छुक जीवों को सुन्दर सरस मार्गदर्शन दिया है। भोग की भूलभूलैया से बाहर निकल, योग के मार्ग पर प्रयाण करने के लिए प्रस्तुत योगाष्टक का गंभीर चिन्तन करना चाहिए। साथ ही साथ 'योगविंशिका' ग्रन्थ का भी गहरा अध्ययन करना चाहिए, जिससे विशेष अवबोध प्राप्त होगा ।