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________________ ४१४ दाता योग्य हो, लेकिन लेनेवाला अयोग्य हो; दाता अयोग्य हो, लेकिन ग्रहणकर्ता योग्य हो; दाता और ग्राहक दोनों अयोग्य हों । उपरोक्त तीनों प्रकार अशुद्ध हैं और अनुपयुक्त भी । ज्ञानसार दाता और ग्राहक दोनों योग्य हों - यह प्रकार शुद्ध है । सामायिक सूत्र, चैत्यवन्दन सूत्र, प्रतिक्रमण सूत्रादि सिखाने की चर्चा यहाँ की गयी है। सूत्र किसे सिखाये जाए ? सूत्रों का अर्थ किसे समझाया जाए ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज अपने पूर्ववर्ती प्रामाणिक - निष्ठावन्त आचार्यों की साक्षी के साथ उक्त प्रश्नों का निराकरण / समाधान करते हैं । जिस व्यक्ति को स्थान, इच्छा, प्रीति आदि विषयक कोई योग प्रिय नहीं और जो किसी योग की आराधना नहीं करता, उसे सूत्रदान न किया जाए । प्रश्न : आधुनिक काल में ऐसे योगप्रिय अथवा योगाराधक मनुष्य मिलने अत्यन्त कठिन हैं, यहाँ तक कि संघ / समाज में भी नहीं के बराबर ही हैं । सौ में से पाँच मिल जाएं तो बस । तब चैत्यवन्दनादि सूत्र क्या जन इने-गिने लोगों को ही सिखाये जाएँ ? अन्यों को नहीं सिखाये जाएँ तो क्या धर्मशासन का विच्छेद सम्भव नहीं है ? किसी भी तरह, भले ही अविधि से क्यों न ही कोई धर्माराधना करता हो, परन्तु धर्मक्रिया नहीं करनेवालों से तो बेहतर ही है न ? समाधान : सर्व प्रथम धर्म-शासन - तीर्थ को समझ लो ! तीर्थ किसे कहा जाए ? उसकी परिभाषा क्या है ? उसकी तह में पहुँचो, तभी तीर्थ की वास्तविक व्याख्या आत्मसात् कर सकोगे । जिनाज्ञारहित मनुष्यों का समुदाय तीर्थ नहीं कहलाता । जिनाज्ञा का पक्षपात और प्रीति तो हर एक मनुष्य में होनी चाहिए। शास्त्राज्ञा - जिनाज्ञा के प्रति आदर, प्रीति-भक्ति और निष्ठा रखनेवाले साधु-साध्वीश्रावक श्राविकाओं का समूह ही धर्मशासन है, तीर्थ है । ऐसों को सूत्रदान करने में कोई दोष नहीं । लेकिन भूलकर भी अविधि को प्रोत्साहन न दिया जाए । अविधि-पूर्वक धर्मक्रियायें करनेवालों की पीठ न थपथपायी जाए । उनकी अनुमोदना न की जाए। क्योंकि अविधि को उत्तेजन देने से शास्त्रोक्त क्रिया का
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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