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योग
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है । ठीक वैसे ही वचनानुष्ठान भी शास्त्राज्ञा से ही सम्भव है । लेकिन शास्त्र की अपेक्षा के बिना सिर्फ संस्कार मात्र से सहज भाव से प्रवृत्ति करे, वह असंगानुष्ठान कहलाता है।
गृहस्थवर्ग में प्रीति और भक्ति-अनुष्ठान का प्राधान्य होना चाहिए । भले ही वह शास्त्राज्ञा से अनभिज्ञ हो, लेकिन इतना अवश्य ज्ञात कर ले कि, 'उक्त धर्ममार्ग तीर्थंकरों द्वारा आचरित और प्रदर्शित है । इसके अनुसरण से ही सर्व सुखों की प्राप्ति होगी। पाप-क्रियाओं में रात-दिन अठखेलियाँ करते अनन्त भव भटकते रहे, चार गति की नारकीय यातनाएँ और असह्य दुःख सहते रहे । अब मुझे पापक्रिया से कोसों दूर रहना है, उसके भँवर में फँसना नहीं है, बल्कि हितकारी क्रियायें करते हुए अपने जीवन को सफल बनाना है ।
प्रीति-भक्ति के भाव से आराधित धर्मानुष्ठान तो ऐसा अपूर्व पुण्यानुबन्धी पुण्य उपार्जन कराता है कि एक नौकर, राजा कुमारपाल बन सकता है। उसने पाँच कोडी के पुष्पों से जो अनन्य अद्भुत जिन पूजा का अनुष्ठान किया वही तो वास्तविक प्रीति-अनुष्ठान था ! उस अनुष्ठान से ही तो उसका अभ्युदय सम्भव हुआ ।
'अभ्युदयफले चाद्ये, निःश्रेयससाधने तथा चरमे ।' षोडशके
पहले तो अनुष्ठान अभ्युदयसाधक हैं, जबकि अन्त के दो निःश्रेयस के साधक हैं।
स्थानाधयोगिनस्तीर्थोच्छेदाधालम्बनादपि । सूत्रदाने महादोष इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥२७॥८॥
अर्थ : आचार्यों का कहना है कि स्थानादि योगरहित को 'तीर्थ का उच्छेद हो' आदि आलम्बन से भी चैत्यवंदनादि सूत्र सिखाने । पढाने में महादोष है ।
विवेचन : किसी भी वस्तु के आदान-प्रदान में योग्यता-अयोग्यता का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। लेनेवाले और देनेवाले की योग्यता पर ही लेन-देन के व्यवहार की शुद्धि रह सकती है।