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ज्ञानसार
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यह है योग के भेद-प्रभेदों का गणित । इस प्रकार योग का आराधक योगी अयोगी घनता है, "शैलेशी" प्राप्त कर मोक्षगामी बनता है।
चैत्यवन्दनादि धर्मयोग के प्रति परम आदर होना चाहिये । भाव शून्य हृदय से आराधित धर्मयोग आत्मा की प्रगति नहीं कर सकता, ना ही उसे प्रीतिअनुष्ठान में कोई स्थान मिलता है। अनुष्ठान में ऐसी प्रीति हो कि अनुष्ठान कर्ता के हित का उदय हो जाय । संसार के अन्य सभी प्रयोजनों का परित्याग कर निष्ठापूर्वक धर्मानुष्ठान आराधना करे । साथ ही सर्वत्र उसके मन में धर्मनुष्ठान के प्रति प्रीति भाव बना रहे।
भक्ति अनुष्ठान में भी इसी प्रकार का आदर, उत्कट प्रीति और अन्य प्रयोजनों का परित्याग होता है। अलबत्त, यहाँ एक विशेषता होती है कि जिस धर्मयोग की वह आराधना करता हो, उसका महत्त्व सदैव उसके मन पर अंकित होता है । मन-वचन-काया के योग विशेष विशुद्ध होते हैं।
प्रीति और भक्ति के पात्र भिन्न होते हैं । जैसे पत्नी और माता । जिस तरह किसी युवक को पत्नी प्रिय होती है, ठीक उसी तरह परम हितकारिणी माता भी अत्यन्त प्रिय होती है । पालन-पोषण का कार्य दोनों का भी एक-सा ही होता है। लेकिन पुरुष पत्नी कार्य प्रीतिवश करता है, जबकि माता का भक्तिभाव
से ।
तृतीय अनुष्ठान है वचनानुष्ठान । सभी धर्मानुष्ठान शास्त्रानुसार करते हुए औचित्यपूर्वक करें । चारित्रवान मुनिवर वचनानुष्ठान की आराधना अवश्य करें । वे शास्त्राज्ञा का भूलकर भी उल्लंघन न करें। साथ ही औचित्य का पालन भी न भूलें । यदि बिना औचित्य के शास्त्रादेश का पालन किया जाए, तो अन्य जीवों की दृष्टि में शास्त्र घृणा के पात्र बन जाते हैं ।
. चतुर्थ अनुष्ठान है - असंगानुष्ठान । जिस धर्मानुष्ठान का अभ्यास अच्छी तरह हो गया हो, वह सहज भावसे होता है, जैसे चन्दन से सौरभ स्वाभाविक रूप से फैलती है।
वचनानुष्ठान और असंगानुष्ठान में एक भेद है। कुम्हार अपना पहिया डंडे से घुमाता है, बाद में बिना डंडे के आलम्बन के भी पहिया निरंतर घूमता रहता