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योग
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स्पन्दन प्रकट करते हैं-यह तो अनुभव करने से ही ज्ञात हो सकता है । इस तरह नित नियमानुसार प्रवृत्ति करते रहने से अन्त में परमात्मा में स्थिरता प्राप्त होगी। ध्यानावस्था में परमात्म-दर्शन होगा । हमारी आत्मा परमात्म-स्वरूप के साथ ऐसा अपूर्व तादात्म्य साघ लेगी कि आत्मा-परमात्मा का भेद ही मिट जाएगा ! अभेद भाव से अनिर्वचनीय मिलन होगा । तब न कोई विकल्प शेष रहेगा और ना ही कोई अन्तर ! भेद में विकल्प होता है जबकि अभेद में निर्विकल्पावस्था ।
__तत्पश्चात् उसे रूपी-मूर्त आलम्बन की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। सूक्ष्म में प्रवेश करने पर स्कूल की अपेक्षा नहीं रहती । सूक्ष्म आत्मागुणों का तादात्म्यसाधक योगी 'योग-निरोध' के सन्निकट पहुँच जाते हैं । 'योग निरोध' स्वरुप सर्वोत्तम योग का पूर्वभावी ऐसा यह अनालम्बन योग है। अर्थात् तेरहवें गुणस्थान पर योग-निरोध होता है। उसका पूर्ववर्ती अनालम्बन योग १ से ७ गुणस्थानों में सम्भव नहीं है । अर्थात् अपने जैसे साधक (१ से ७ गुणस्थानों में) जीवों के लिये तो आरम्भ के चार योग ही आराधनीय हैं। फिर भी अनालम्बन योग का स्वरुप जानना और समझना आवश्यक है, जिससे हमारा आदर्श, ध्येय और उद्देश्य स्पष्ट हो जाए।
यह अनालम्बन योग 'धारावाही प्रशान्तवाहिता' भी कहलाता है । प्रीति-भक्ति-वचोऽसंगैः स्थानाद्यपि चतुर्विधम् तस्मादयोगयोगाप्तेर्मोक्षयोगः क्रमाद् भवेत ॥२७॥७॥
अर्थ : प्रीति, भक्ति, वचन एवं असंग अनुष्ठान द्वारा स्थानादि योग भी चार प्रकार के हैं। अत: योग के निरोध स्वरुप योग की प्राप्ति होने से क्रमशः मोक्षयोग प्राप्त होता है। विवेचन : ५ योग (स्थान, वर्ण, अर्थ, आलम्बन, अनालम्बन)
x ४ योग (इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता, सिद्धि)
x ४ (प्रीति, भक्ति, वचन, असंग) ८०