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________________ ४१० ज्ञानसार यहाँ रुपी और अरुपी, इस तरह आलम्बन के दो भेद हैं । उसमें भी अरुपी परमात्मा के केवलज्ञानादि गुणों के तन्मयता स्वरूप सूक्ष्म अनालम्बन (इन्द्रियों से अगोचर होने के कारण) योग कहा है। पाँचवाँ एकाग्रता-योग(रहित) ही अनालम्बन योग है। स्थान, वर्ण, अर्थ और आलम्बन-ये चार योग सविकल्प-समाधि स्वरूप हैं, जबकि पाँचवाँ अनालम्बन योग निर्विकल्प समाधिस्वरूप है । आत्मा को क्रमशः इस निर्विकल्प दशा में पहुँचना है। अशुभ भावों से शुभ भाव में जाना पड़ता है और शुभ से शुद्ध भाव में प्रवेश सम्भव है । अशुभ भाव से सीधा शुद्ध भाव में जाना असम्भव है । कंचन और कामिनी, मानव जीवन के ऐसे आलम्बन हैं, जो आत्मा को सदैव राग-द्वेष और मोह में फँसाते हैं । दर्गतियों में भटकाते हैं । अतः उनके स्थान पर अन्य शुभ आलम्बनों को ग्रहण करने से ही उन आलम्बनों से मुक्ति मिल सकती है । उदाहरणार्थ-एक बालक है। मिट्टी खाने की उसे आदत है। माता-पिता उसके हाथ से मिट्टी का ढेला छीनने का प्रयत्न करते हैं । लेकिन बालक उक्त ढेलो छोड़ने के बजाय जोर-जोर से रोने लगता है । जब माता उसके हाथ में खिलौना अथवा मिठाई का टुकडा देती है, तब वह मिट्टी का ढेला उठाकर फेंक देता है। ठीक उसी तरह अशुभ पापवर्धक आलम्बनों से मुक्त होने के लिए शुभ पुण्यवर्धक आलम्बनों को ग्रहण करना चाहिये । ___ एक बात और है, जैसा आलम्बन सामने होता है, वैसे ही विचार / भाव हृदय में पैदा होते हैं । राग-द्वेष-प्रेरक आलम्बन हमेशा राग-द्वेष ही पैदा करेंगे, जबकि विराग-प्रशम के आलम्बन आत्मा में विराग-प्रशम की ज्योति फैलाते हैं। अतः परमकृपालु परमात्मा की वीतराग-मूर्ति का आलम्बन लेने से चित्त में विराग की मस्ती जग पड़ेगी । श्री आनन्दघनजी महाराज ने गाया है : "अमीय भरी मूर्ति रची रे, उपमा न घटे कोय, शान्त सुधारस झीलती रे, निरखत तृप्त न होय, विमल-जिन दीठां लोयण आज जिनमूर्ति का आलम्बन मानव-मन में किस तरह के अद्भुत । अभिनव
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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