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योग
४०९ उपर्युक्त पद्धति से तन-वचन पर असाधारण काबू पा मन को नियंत्रित करने की क्रिया (आराधना) में लग जाता है । उसके लिये वह आवश्यक क्रियाओं के सूत्रों का अर्थज्ञान प्राप्त करता है । अर्थज्ञान में से एकाध मनोहर कल्पना-सृष्टि का सर्जन करता है और सूत्रोच्चारण के साथ-साथ उक्त कल्पनासृष्टि का 'रील' भी शुरू कर देता है । वह जो उच्चारण करता है, उसके प्रतिध्वनि का श्रवण करता है और इस तरह भावालोक का अवलोकन करता है। फलतः उसका मन उसमें सध जाता है, उसमें पूर्णरुपेण ओत-प्रोत हो जाता है और उसमें उसे आत्मानन्द की अनुभूति होती है। साथ ही साथ जिन-प्रतिमादि का आलम्बन ग्रहण कर आनन्द में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है । जिन-प्रतिमा में उसका मन प्रवेश करता है । फलतः वीतरागता एवं सर्वज्ञता के संग मुहब्बत हो जाती है ।
इस तरह योगी अपना कल्याण-मार्ग प्रशस्त बनाता है । योगी का आभ्यन्तर सुख योगी खुद ही अनुभव करता है । भोगी उसे देख नहीं सकता, ना ही कह सकता है और यदि कभी कह भी दे तो भोगी को वह नीरस लगता है। योगी का सुख भोगी को आकर्षित नहीं कर सकता और ना ही भोगी का सुख योगी को कभी ललचा सकता है।
आलंबनमिह ज्ञेयं, द्विविधं रुप्यरुपि च । अरूपिगुणसायुज्य योगोऽनालम्बनः परः ॥२७॥६॥
अर्थ : यहाँ आलम्बन रुपी और अरुपी, दो प्रकार के हैं । अरुपी सिद्ध स्वरुप के साथ तन्मयतारुप योग, वह उत्कृष्ट निरालम्बन योग है।
विवेचन : आलम्बन के दो भेद हैं-रुपी आलम्बन और अरूपी आलम्बन। रुपी आलम्बन में जिन-प्रतिमा का समावेश है, जबकि अरुपी आलम्बन का मतलब सिद्ध स्वरुप का तादात्म्य । वह आलम्बन होते हुए भी निरालम्बन योग माना जाता है। श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अपने ग्रन्थ 'योगविशिका' में कहा है
आलंबणं पि एयं रुविमरुवि य इत्थ परमुत्ति । तग्गुण परिणइरुवो सुहुमो अणालंबणो नाम ॥