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ज्ञानसार
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किया गया है, सुख का मुखौटा पहनाया गया है। खरीददार आन्तरिक विषैलेपन को समझ नहीं पाते, अनभिज्ञ जो है । जो कुछ भी चमक-दमक है, वह ऊपरी तौर पर है | लोग-बाग बड़े चाव से खरीदकर जाते हैं, उसका यथेष्ट उपभोग करते हैं और अन्त में मिट जाते हैं, मटियामेट हो जाते हैं I
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योगी सुख अवश्य चाहता है, लेकिन उसे पुद्गलों की आसक्ति नहीं । वह आनन्द चाहता है, लेकिन मन का उन्माद नहीं । वह सागर सा शान्त और उत्तुंग शिखरों की तरह स्वस्थ है । वह बाह्य विश्व से सुख शान्ति और आनन्दप्राप्ति की कामना का परित्याग कर, अपने आन्तर विश्व में झांकता है और तब उसे वहाँ अथाह सुख, परम शान्ति और असीम आनन्द के मुक्ता-मणि, हीरा - मोती अत्र तत्र बिखरे दृष्टिगोचर होते हैं ।
वह आन्तर-सृष्टि में प्रवेश करने का दृढ़ संकल्प करता है । उसके लिये वह सर्वज्ञ के शास्त्र - कोष से मार्गदर्शन खोजता है । मार्गदर्शन प्राप्त होते ही उसका दिल बाग-बाग हो उठता है, हृदय गद्गद् हो उठता है । उसके नयन से हर्षाश्रु उमड़ आते हैं । फलतः वह स्थान, वर्ण, अर्थ और आलम्बन - इन चार योगों की अनन्य आराधना आरम्भ कर देता है ।
सर्व प्रथम आसन-मुद्राओं का अभ्यास करता है । सुखासन, पद्मासन, सिद्धासनादि आसन सिद्ध कर, प्रदीर्घ समय तक एक आसन पर ध्यानस्थ बैठ, अपने शरीर को नियंत्रित करता है । योग मुद्रा के सहयोग से मुद्रायें सिद्धकर शरीर को स्वाधीन बनाता है । उसके लिये आवश्यक आहार-विहार और नीहार का चुस्ती के साथ पालन करता है । प्रमाद... अशक्ति से अपने शरीर को सुरक्षित स्ख ‘स्थानयोग' के लिये सुयोग बनाता है
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तत्पश्चात् अपनी दिनचर्या से जुड़ी धार्मिक क्रियायें - चैत्यवन्दन, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन वगैरह क्रिया में बोले जाते सूत्रों का अध्ययन इस तरह करता है कि जिसका उच्चारण करनेवाला और सुननेवाला, दोनों तन्मय हो जायें । उसके सशक्त और सुरीले गले से फूटी स्वर लहरियाँ बाह्य कोलाहल, शोर गुल को खदेड़ देती हैं । इस स्वर-व्यंजना के नियमों का कठोर पालन करनेवाला योगी 'वर्णयोग' को भी सिद्ध कर देता है ।