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________________ योग ४०७ स्वाध्याय और तपश्चर्यायें सविकल्प से निर्विकल्प में जीव को नहीं ले जा सकतीं। हालाँकि मोक्ष के साथ जोड़ने की क्षमता रखनेवाले धर्म-योगों की आराधना निर्विकल्प अवस्था तक ले जा सकती है । लेकिन जिन विधि-विधानों और पद्धतियों से धर्मक्रिया सम्पन्न होनी चाहिए, उस तरीके से ही होनी चाहिये। ठीक उसी तरह उक्त धर्मक्रियाओं को उत्तरोत्तर विशुद्ध एवं अतिचाररहित बनाने की सावधानी होनी चाहिये । अर्थालंबनयोश्चैत्यवन्दनादौ विभावनम् । श्रेयसे योगिनः स्थान वर्णयोर्यन एव च ॥२७॥५॥ अर्थ : चैत्यवन्दनादि क्रिया करते समय अर्थ एवं आलम्बन का स्मरण करना तथा स्थान और वर्ण में उद्यम करना योगी के लिए कल्याण-कारक है। विवेचन : योगी ! ऊर्ध्वगामी गतिशीलता ! परम ज्योति में विलीन होने की गहन तत्परता ! तिमिराच्छन्न वातावरण में प्रकाश की तेजस्वी ज्योति को मुखरित करनेवाले, असत्य को मिटाकर सत्य की प्रतिष्ठा करनेवाले और मृत्यु की जड़ता का उच्छेदन कर अमरता का वरण करनेवाले अप्रतिम साहसी योगी ! - योगी कल्याण की कामना रखता है ! सुख की चाह रखता है ! लेकिन वह जिस कल्याण एवं सुख का ग्राहक है वह सुख विश्व के बाजार में कहीं भी प्राप्त नहीं होता । लेकिन बाजार में सुख-क्रय करनेवालों की भीड़ अवश्य जुटी हुई है। योगी वहाँ जाता है, लेकिन वहाँ का कोलाहल, शोर गुल, भीड-भडक्का और अपाधापी निहार, आगे निकल जाता है । तब उसके आश्चर्य और निराशा की सीमा नहीं रहती । वह व्यथित... दुःखी हो उठता है, संसार के नज़ारे को देखकर । बाजार में सजाकर रखे गये सुखों की वास्तविकता को उसकी तीक्ष्ण नजीर परख लेती है । फलस्वरुप उसका हृदय द्रवित हो उठता है... 'अरे यह तो हलाहल विष से भी ज्यादा दारूण है। उस पर सिर्फ सुख का मिथ्या शृंगार
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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