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ज्ञानसार
अपराध-जगत की अभिनव कथायें भी उन्हें पसन्द नहीं होतीं । भोजन की विविधता का वर्णन करती बातें भी अच्छी नहीं लगती ।
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२. जिसे जो पसन्द होता है, उसे प्राप्त करने अथवा उस जैसा बनने के लिए वह प्रायः प्रयत्नशील रहता है और इच्छायोगी ऐसे हर शुभ उपाय का पालन करने में सदैव तत्पर रहते हैं । ऐसा करते हुए कोई 'योगी' उनका आदर्श बन जाता है, फिर भले ही वे आनन्दघनजी हों अथवा उपाध्याय यशोविजयजी हों, उन जैसा अपने आपको ढालने के लिए वह शुभ / पवित्र उपायों का पालन करता है ।
३. सम्भव है, पारंभ के पुरुषार्थ में कुछ गलतियाँ / त्रुटियाँ रह जायें और अतिचार भी लग जायें । फिर भी सजग योगी के लक्ष्य से बाहर से त्रुटियाँ अथवा अतिचार नहीं रहते । वह अतिचार टालने का हर सम्भव प्रयत्न करता है और अपनी भूलों को समय पर सुधार लेता है । वह ऐसा अप्रमत्त बन जाता है कि निरतिचार आचार - पालन करने लगता है । फलतः किसी अतिचार के लगने का उसे कोई भय नहीं रहता ।
४. ऐसे महान् धुरंधर योगी को अहिंसादि विशिष्ट गुण सिद्ध हो जाते हैं कि उसके सान्निध्य में रहनेवाले अन्य जीव भी इन गुणों को सहज में प्राप्त कर लेते हैं । मानव की वैर - वृत्ति शान्त हो जाती है, पशुओं की हिंसक - वृत्ति शान्त हो जाती है I
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सर्व प्रथम योग ‘कथा-प्रीति' अनन्य महत्त्व रखता है। योगी को कथावार्ता का श्रवण करते हुए प्रीतिभाव पैदा होता है, यह प्रीति / प्रेम स्वाभाविक होता है । ऐसे प्रीति - भावयुक्त मानव को स्थानादि योगों में प्रवृत्ति करना पसन्द होता है । अतः वह हमेशा योगी पुरुषों के सान्निध्य की खोज में रहता है और जब ऐसे योगीश्वर की भेट हो जाती है, तब उसके आनन्द की अवधि नहीं रहती ।
लेकिन वर्तमान समय में प्रायः मुनि-वर्ग में स्थानादि योग के प्रति प्रवृत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती और आमतौर पर सबकी धारणा बन गयी है कि जैसे वह अन्य लोगों के लिये ही हैं। अलबत्त, शास्त्र- स्वाध्याय एवं तपश्चर्या की परंपरा कायम है, लेकिन उसमें स्थानादि योगों का समावेश नहीं दिखता । अतः शास्त्र