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________________ योग ४०५ इच्छादि-योगों के अनुभाव हैं-अनुकंपा, निर्वेद, संवेग और प्रशम । इन अनुभावों के प्रकटीकरण हेतु योगी को निरन्तर पुरुषार्थ करना चाहिए । इनसे आत्मा अपूर्व आनन्द का अनुभव करती है । हमेशा ज्ञान और क्रिया द्वारा आत्म-भावों में परिवर्तन लाने का लक्ष्य होना चाहिये । न भूलो कि हमें लौकिक भाव से लोकोत्तर भावो की और जाना है। स्थूल में से सूक्ष्म की ओर जाना है। इच्छा तद्वत् कथाप्रीतिः प्रवृत्तिः पालनं परम् । स्थैर्य बाधकभीहानिः, सिद्धिरन्यार्थसाधनम् ॥२७॥४॥ अर्थ : योगी की कथा में प्रीति होना, यह इच्छा-योग है। उपयोग का पालन करना प्रवृत्ति-योग है । अतिचार के भय से मुक्ति, स्थिरता योग है और दूसरों के अर्थ का साधन करना सिद्धि-योग है। विवेचन : यहाँ इच्छादि चार योगों की स्वतंत्र परिभाषा दी गयी है : १. इच्छा योग योगी पुरुषों की कथाओं में रुचि पैदा करता है । अर्थात् योग और योगी की कथायें बहुत प्रिय लगती हैं । निर्जन, उज्जड स्मशान में कायोत्सर्ग-ध्यान में निमग्न अवन्ती सुकुमाल मुनि की कहानी सुनाइए, वह तन्मय / तल्लीन हो जाएगा। कृष्ण-वासुदेव के भ्राता गजसुकुमाल-मुनि की कथा कहिए, वह सब कुछ भूलकर निमग्न हो जाएगा। उसे आप खंधक मुनि अथवा झांझरिया मुनि की वार्ता कहिए, वह खाना पीना तक छोड़ देगा । ऐसा मनुष्य इच्छायोगी होता है। साथ ही यह मत मानना कि कथायें सबको पसन्द हैं। सबको ऐसी कथायें पसन्द नहीं होती, इच्छायोगी को ही पसन्द होती हैं । इच्छायोगी को आधुनिक युग की कपोल-कल्पित कहानियाँ, जासूसी कथायें, सामाजिक श्रृंगारिक कथायें एवं वैज्ञानिक अद्भुत कथायें नीरस लगती हैं । यह साहित्य न तो उन्हें रुचिकर लगता है और ना ही उन्हें पढ़ना पसन्द होता है। उन्हें देशविदेश की कथायें, राजा और मन्त्री की सत्तालोलुपता भरी कपट-कथाये, पढ़ना कतइ पसन्द नहीं । ठीक वैसे ही विभिन्न राष्ट्रों की नारी-कथायें फेसन-परस्ती के किस्से-कहानियाँ और भूत-प्रेत की कथायें, मन्त्र-तंत्र की कथायें तथा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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